Fri, Feb 14, 2025
15 C
Gurgaon

क्या विपक्षी एकता कायम रहेगी

अति आत्मविश्वास का होना सदैव विनाशकारी और आत्म घातक माना जाता है। ऐसा ही दिल्ली विधानसभा के चुनाव में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। इस चुनाव में आम आदमी पार्टी के नेताओं का व्यवहार निश्चित ही ऐसा होता जा रहा था,जो अति विश्वास को ही परिलक्षित करने वाला ही था। हालांकि किसी भी चुनाव के दो पहलू होते हैं। किसी भी चुनाव क्षेत्र में केवल एक ही उम्मीदवार विजय प्राप्त करता है,शेष पराजित होते हैं। पराजय निश्चित रूप से गलती सुधारने का अवसर प्रदान करती है। आम आदमी पार्टी इस पराजय को अपने भूल सुधार के लिए स्वीकार करेगी, यह होना चाहिए लेकिन आम आदमी पार्टी के नेता ऐसा करने की मानसिकता में दिखाई नहीं देते। इसका कारण यही है कि उनमें राजनीतिक दल की सरकार चलाने का अनुभव नहीं है। आम आदमी पार्टी के नेताओं का अभी भी यह मानना है कि उनकी पार्टी मात्र दो प्रतिशत के अंतर से हारी है, लेकिन उनको पता होना चाहिए कि एक प्रतिशत का अंतर भी राजनीति का दृश्य बदल सकता है। इसलिए यही कहा जा सकता है कि हार तो हार होती है, उसके तर्क का सहारा लेकर मन को दिलासा दी जा सकती है, जीत नहीं मानी जा सकती।

वैसे विपक्ष को इसकी आदत-सी हो गई है कि वह हार को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। पिछले लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद भी ऐसी ही तस्वीर दिखाने का प्रयास किया गया कि विपक्ष ने मानो सरकार बनाने लायक जीत हासिल कर ली हो, लेकिन तस्वीर का असली चेहरा कुछ और था। वर्तमान राजनीतिक उतार-चढ़ाव का अध्ययन किया जाए तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिए एक होने की क़वायद कर चुके हैं, लेकिन यह क़वायद परवान नहीं प्राप्त कर सकी। लोकसभा चुनाव के समय इंडी गठबंधन बनाकर तमाम भाजपा विरोधी दलों ने कई राज्यों में एकता का दिखावा किया। लेकिन कई राज्यों के विधानसभा चुनाव के समय इंडी गठबंधन के दल एक साथ न होकर बिखरे हुए दिखाई दिए। अब आगे चलकर एकता के प्रयास किए तो जाएंगे, लेकिन वे एक साथ हो जाएंगे, इस बात की संभावना बहुत कम दिखाई देती है।

सीधे अर्थों में कहा जाए तो विपक्षी एकता को कई बार झटके लग चुके हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की हार विपक्ष की एकता के लिए एक और बड़ा झटका माना जा रहा है। कांग्रेस ने जिस प्रकार से आम आदमी पार्टी को सत्ता से बाहर करने का सुनियोजित रणनीति अपनाई, वह चुनाव परिणाम आने के बाद पूरी तरह सामने आ गया। ऐसी स्थिति में अब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक मंच पर आएंगे, इस बात की संभावना बहुत कम है। हालांकि कांग्रेस की ओर अपनाई गई यह रणनीति कोई नई बात नहीं है। कई दलों को ऐसा झटका मिल चुका है,स्वयं आम आदमी पार्टी ने हरियाणा में ऐसा ही राजनीतिक खेल खेलकर कांग्रेस को सत्ता में आने से रोक दिया था।

जहां तक विपक्षी एकता की बात है तो इसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम खुद इंडी गठबंधन या भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों ने किया है। कई राज्यों में एक-दूसरे के विरोध में ताल ठोकने वाले यह दिखावे की एकता वाले राजनीतिक दल आगे भी ऐसी ही नीति का अनुसरण करेंगे, इस बात की गुंजाइश ज्यादा दिखाई देती है। क्योंकि गठबंधन में शामिल होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल किसी भी दल से पीछे रहने की मानसिकता में दिखाई नहीं देते। कांग्रेस भी इसी मानसिकता से ग्रसित दिखाई देती है। राज्यों तक प्रभाव रखने वाले क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस को बेहद कमजोर मानकर व्यवहार कर रहे हैं।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कई बार कांग्रेस को आईना दिखाते हुए व्यवहार किया है। ऐसी स्थिति में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और ममता बनर्जी की पार्टी एक साथ आकर पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव लड़ेंगे,दूर की बात दिखती है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस को ज़मीन दिखाने के प्रयास में खुद के लिए आत्मघाती रास्ता तैयार किया। यह बात सही है कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल अपने आपको कांग्रेस से बड़ा मानने लगे थे इसलिए कांग्रेस से किनारा कर चुनाव मैदान में अकेले कूदे और पहली बार सत्ता से दूर हो गए।

कहा जाता है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उभार ने कांग्रेस का बंटाधार करने का काम किया। कहीं-कहीं यह भी सत्य है कि कांग्रेस के अप्रिय व्यवहार के चलते ही इन क्षेत्रीय दलों का गठन हुआ। इसलिए यह क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस के साथ मिलकर आसानी से चुनाव लड़ेंगे,यह बहुत व्यावहारिक नहीं दिखता। कई राज्यों में यह भी दिखाई दिया कि जिन क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस ने समझौता किया,उन राज्यों में कांग्रेस तो डूबी ही,साथ आने वाले दलों को भी डुबो दिया। कहीं-कहीं कांग्रेस को डूबता जहाज तक कहा गया। आज कांग्रेस की मजबूरी यह है कि उसे तिनके की जरूरत है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति में जो मामूली सुधार हुआ,उसका कारण क्षेत्रीय दलों का सहयोग ही था। उत्तर प्रदेश में अगर समाजवादी पार्टी का साथ नहीं होता तो कांग्रेस आज की स्थिति में भी नहीं होती। दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम कहीं न कहीं विपक्षी एकता के सपने को चूर-चूर करने वाला भी है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या अब विपक्षी एकता कायम रह पाएगी।

Hot this week

Ratan Tata ने अपनी वसीयत में पेटडॉग का भी रखा ध्यान, जानिए अब कौन करेगा Tito की देखभाल

 हाल ही में देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने...

OnePlus 13 के लॉन्च से पहले सामने आई पहली झलक, iPhone जैसे बटन के साथ मिलेगा कर्व्ड डिस्प्ले

वनप्लस अपने अपकमिंग फ्लैगशिप स्मार्टफोन की लॉन्च डेट कन्फर्म...
spot_img

Related Articles

Popular Categories