बिहार का राजनीतिक सफर: सत्ता, संघर्ष और समीकरण
बिहार की राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि एक परंपरा है। 1912 में बंगाल से अलग होकर बने बिहार ने 113 वर्षों में लोकतंत्र की हर करवट देखी — विकास, जनसंघर्ष, जातीय समीकरण और सत्ता के लगातार बदलते रंग।
श्रीकृष्ण सिंह से कांग्रेस युग तक
स्वतंत्रता से पहले ही बिहार राजनीतिक रूप से जागरूक था। 1946 में श्रीकृष्ण सिंह राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने और औद्योगिक विकास के लिए याद किए गए। बोकारो, बरौनी और हजारीबाग जैसे क्षेत्र उनके कार्यकाल में उभरे। 1952 से 1980 तक कांग्रेस का दबदबा कायम रहा और बिनोदानंद झा, दरोगा राय, कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं ने बिहार की दिशा तय की।
जेपी आंदोलन से सामाजिक न्याय तक
1974 का जयप्रकाश नारायण आंदोलन बिहार की राजनीति का निर्णायक मोड़ था। इसी आंदोलन से लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और सुशील मोदी जैसे नेताओं का उदय हुआ।
1990 में लालू प्रसाद यादव सत्ता में आए और “सामाजिक न्याय” का नारा देकर वंचित समाज को सत्ता में प्रतिनिधित्व दिलाया, हालांकि उनके शासन को “जंगलराज” के नाम से भी जाना गया।
सुशासन युग और स्थायी अस्थिरता
2005 में नीतीश कुमार ने सत्ता संभाली और बिहार को “सुशासन” की पहचान दी। सड़क, शिक्षा और महिला सशक्तिकरण योजनाओं ने उनकी छवि को मजबूत किया। लेकिन नीतीश की राजनीति में गठबंधन बदलने की प्रवृत्ति ने यह साबित किया कि बिहार में कोई दोस्त या दुश्मन स्थायी नहीं होता, केवल समीकरण स्थायी होते हैं।
2025 की ओर: नई पीढ़ी, नए सवाल
आज तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, सम्राट चौधरी और उपेंद्र कुशवाहा नई पीढ़ी के चेहरे हैं, जो 2025 में बिहार की बिसात तय करेंगे।
अब सवाल वही है जो 1946 में था — “कौन भाएगा बिहार को?”
और जवाब भी वही रहेगा — जिसे जनता चाहेगी, वही बिहार का भाग्य लिखेगा।




