श्रीकृष्ण भाव पुरुष हैं, परब्रह्म के पूर्ण प्रतीक जो लीला रूप में अनुभव गम्य होते हैं। अक्षय स्नेह के स्रोत रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण इंद्रियों के विश्व में आनंद के निर्झर सरीखे हैं। उनका सान्निध्य चैतन्य की सरसता के साथ सारे जगत को आप्लावित और प्रफुल्लित करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में विभूति योग की व्याख्या करते हुए श्रीकृष्ण खुद को ऋतुओं में बसन्त घोषित करते हैं : ऋतूनाम् कुसुमाकर: (गीता,10,35)। श्रीमद्भागवत के दशम स्क्न्ध में रास प्रवेश करते हुए उनकी निराली छवि कामदेव को भी लजाने वाली है। गोपियों के सामने भगवान श्रीकृष्ण अपने मुस्कुराते हुए मुखकमल के साथ पीताम्बर धारण किए तथा वनमाला पहने हुए प्रकट हुए। उस समय वे साक्षात मन्मथ यानी कामदेव का भी मन मथने वाले लग रहे थे। श्रीकृष्ण अप्रतिम सौंदर्य और लावण्य के आगार हैं तो काम को सौंदर्य के मानदंड की तरह रखा गया है। भारतीय संस्कृति में कामदेव की संकल्पना अत्यंत प्राचीन है। इच्छा और कामना की प्रतिमूर्ति के रूप में काम शब्द का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलता है जिसके ऋषि परमेष्ठी प्रजापति हैं, और देवता हैं परमात्मा।
विश्व की सृष्टि के कारण या प्रयोजन पर चिंतन करते हुए के रूप में ऋषि की अनुभूति कुछ इस तरह प्रस्फुटित हुई थी। अंधकार में अंधकार व्याप्त था (मानों अपने आप में वह छिप कर बैठा हो)। जल में जल समाहित था। तब असत् अर्थात् जो शून्यमय था, वह तप की महिमा से मंडित था और वह प्रकट हुआ। इसके मन का प्रथम बीज निकला, वही आरम्भ में काम बन गया– (अर्थात् सृजन की प्रवृत्ति)। ऋषियों ने अपने अंत:करण में विचार करके यह निश्चित किया कि असत् में– मूल परब्रह्म में सत्– का, विनाशी दिखने वाली सृष्टि का यह पहला सम्बन्ध है।
व्यक्त और अव्यक्त रूपों वाले कामदेव मन्मथ, अतनु, अनंग, कंदर्प, मदन, पुष्पधन्वा आदि कई नामों से जाने जाते हैं। उनको लेकर अनेक कथाएँ और मिथक प्रचलित हैं। एक कथा यह है कि कामदेव ब्रह्मा के मन से जन्मे थे। कहते हैं वसंत पंचमी की तिथि पर कामदेव का धरती पर आगमन हुआ। वे धनुष बाण से सज्जित रहते हैं। गन्ने (यानी मधु!) से बने धनुष, भ्रमरों की पंक्ति वाली डोरी (प्रत्यंचा) और फूलों के बाण के साथ वह किसी को भी बेध सकते हैं। जहां सौंदर्य है वहीं काम की उपस्थिति है जैसे- यौवन, स्त्री, सुंदर पुष्प, गीत, पराग कण, सुंदर उद्यान, वसंत ऋतु, चंदन, मंद समीर आदि। आनंद, उल्लास, हर्ष, कामना, इच्छा, अभीष्ट, स्नेह, अनुराग आदि के भाव काम की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। जीवन में काम केंद्रीय है और धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ उसे भी पुरुषार्थ का दर्जा मिला हुआ है।
एक कथा के अनुसार देवताओं को तारक असुर के विरुद्ध युद्ध के लिए सेनापति की आवश्यकता हुई। कामदेव की सहायता से शिव का ध्यान पार्वती की ओर आकृष्ट किया गया, जिससे शिव की तपस्या भंग हुई। उन्होंने क्रुद्ध होकर तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया। कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर शिव ने कामदेव को प्रद्यम्न के रूप में जन्म पाने की अनुमति दी। फिर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में कामदेव ने जन्म लिया था।
वर्षपर्यंत की भारतीय काल-यात्रा का आरंभ चैत्र मास से होता है और तभी वसंत भी शुरू होता है। वसंत ऋतु समग्रता और पूर्णता का प्रतीक होती है जिसमें विकासमान प्रकृतिकुसुमित, प्रफुल्लित, प्रमुदित रूप में सजती-संवरती है। महाकवि कालिदास के शब्दों में इस ऋतु में सब कुछ प्रिय हो उठता है : सर्वम् प्रिये चारुतर वसंते (ऋतु संहार, 6,2 )। श्रीकृष्ण के रूप में सभी गुण नया सौंदर्य पा जाते हैं और उनका प्रकटन बसन्त में होता है। इस दृष्टि से महाकवि जयदेव के श्रुतिमधुर काव्य गीत गोविन्द की चर्चा के बिना कोई भी चर्चा अधूरी रहेगी। इस काव्य के ‘सामोददामोदर’ नामक पहले सर्ग में वसंत ऋतु में श्रीकृष्ण का वर्णन किया गया है। इस वासंती रस वृष्टि की इस रचना ने भारत के मन को मोह लिया है। संगीत और नृत्य में अनेक कलाकारों ने इसकी अभिव्यक्ति की है।
मूर्त या मानवीकृत वसंत कामदेव का परम सुहृद और सहचर है। वह सृष्टि के उद्भेद का संकल्प है। फागुन-चैत, यानी आधा फ़रवरी, पूरा मार्च और आधा अप्रैल बसन्त ऋतु के महीने कहे जाते हैं। वसन्त या फागुन-चैत के साथ भारतीय नया वर्ष भी शुरू होता है। वसन्त कुछ नया होने की और कुछ नया पाने की उत्कट उमंग है जो प्रकृति की गतिविधि में भी प्रत्यक्ष अनुभव की जाती है। भारत में इस मौसम में कोयल की कूक और पपीहे की ‘पी कहाँ’ की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती है, तरु, पादप, लता, गुल्म सभी नए-नए पल्लवों से सुशोभित होने लगते हैं और हवा में भी सुवास घुलने लगती है। मन बहकने लगता है और उसका चरम वसंतोत्सव में अनुभव होता है। इस उत्सव में श्रीकृष्ण जनमानस के अभिन्न अंग बने हुए हैं।