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आरक्षण का आधार आर्थिक हो तो देश जातिवाद से मुक्त हो जाएगाः जगद्गुरु डॉ. चन्द्रशेखर

-प्रयागराज महाकुम्भ में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ से साक्षात्कार में भारतवर्ष के ज्वलंत मुद्दों पर रखे विचार

महाकुम्भनगर (प्रयागराज), 07 फरवरी (हि.स.)। अनादिकाल से भारत में साधु-संतों की महान परंपरा रही है। सबके साधना और पूजा पद्धति के मार्ग भले ही भिन्न हों, लेकिन अंतिम उद्देश्य सबका एक ही है- उस परब्रह्म को पाना। संतों का मत अलग हो सकता है, लेकिन उनकी शिक्षाओं में प्रेम, करुणा, दया, सद्भाव, परोपरकार का तत्व अवश्य होगा। आम आदमी के मन में भिन्न-भिन्न मतों, परंपराओं और पद्धतियों को लेकर तमाम प्रश्न, जिज्ञासाएं और भ्रम बने रहते हैं। वीरशैव परंपरा कुल के जगद्गुरु और जंगमबाड़ी के शिवाचार्य डॉ.चन्द्रशेखर महास्वामी से वार्तालाप में तमाम भ्रांतियां टूटीं। अनेक अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर मिले। जिज्ञासाएं शांत हुईं और एक नयी दृष्टि प्राप्त हुई। जगद्गुरु डॉ. चन्द्रशेखर महास्वामी से धर्म, समाज, विश्व, व्यवस्था एवं अन्य विषयों पर ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के मुख्य समन्वयक एवं महाकुम्भ प्रभारी राजेश तिवारी ने लंबी बातचीत की है। जगद्गुरु ने आरक्षण जैसे ज्वलंत विषय पर विचार रखे। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश…

प्रश्न : महाकुम्भ मेला है या अमृत महोत्सव?उत्तरः दोनों है। हमारे यहां तो नकारात्मक गतिविधियों में भी सकारात्मकता ढूंढी जाती है। महाकुम्भ की प्रतीक्षा आमजन से लेकर साधु-संतों तक को रहती है। यह मेला कम, महोत्सव अधिक है। संसारी दृष्टि में मेला और आध्यात्मिक दृष्टि से महोत्सव है। यह तट गंगा-यमुना के संगम का सिर्फ स्थल ही नहीं है बल्कि गुप्तवाहिनी सरस्वती भी यहां प्रवाहित हैं। प्रत्यक्ष सरस्वती तो संतों के मुखारविंद से निकले हुए शब्द हैं। क्या एक स्थान पर इतने संत कभी जुट सकते हैं, जुटकर ज्ञान चर्चा कर सकते हैं। कुम्भ में यही अद्भुत संयोग देखने को मिलता है। जब एक क्षण के अंश में भी वेद की ऋचाएं मौन को तोड़कर मुखर हो जाती है। एक भी पल ऐसा नहीं गुजरता जब ज्ञानेंद्रिय में कोई ज्ञानिक शब्द न पड़े। ऐसा सिर्फ और सिर्फ कुम्भ में ही संभव है। इसीलिए कुम्भ की प्रतीक्षा आमजनों को ही नहीं बेसब्री से साधु संतों को भी रहती है।

प्रश्न : अमृत क्या है?उत्तर : जो आपको अमर करे, वही अमृत है। शरीर नहीं, आत्मा अमर है। और यह आत्मा कोई अमर कर देगा ऐसी बात भी नहीं है। वह तो सर्वदा अमर है। बस आपके अंदर यह भाव आ जाए, उसी के लिए यह सारा क्रियाकलाप है। तामझाम हैं। आप वास्तव में वह नहीं हो जो आप स्वयं को जानते-समझते हैं। मूल में वह है जहां से आपका मूल जुड़ा है। ब्रह्म स्वरूप को जानकर सदा आनन्द में रहें, यही भाव अमृत है। यही यहां बताया-समझाया जाता है। संगम में देह की डुबकी लगाएं पर मन से ज्ञान-गंगा में डुबकी लगानी है। यही तो महाकुम्भ का अभिप्राय भी है।

प्रश्न : सनातन क्या है और सत्संग किसे कहते हैं?उत्तर : जो सदा-सदा रहता है वही सनातन है। न तो इसे कोई स्थापित कर सकता है और न ही इसे कोई उजाड़ सकता है। जो समयातीत है उसकी समय, काल, परिस्थिति में व्याख्या नहीं की जा सकती। बस मान सकते हैं। वह भी तथ्यपूर्ण विवेक द्वारा। सत्संग द्वैत से मुक्ति का नाम है। द्वैत तो रहेगा ही। पर इसे खत्म करना अपनी बुद्धि पर निर्भर करता है। संतों का काम है सत्य को बताना, मानना तो सामने वाले पर निर्भर करता है। भेद-बुद्धि से ऊपर उठना ही सत्संग है।

प्रश्न : वीरशैव परंपरा क्या है? इस संप्रदाय की क्या कहानी है?उत्तर : वीरशैव परंपरा में भगवान शिव को आराध्य माना गया है। इसका प्राकट्य शिव से है। शिव का शाब्दिक अर्थ अनादि। जिसका न ओर है न छोर है। जहां आप खड़े हैं, वहीं से शिव है। शून्य निर्विकार का नाम शिव है। इसी का अभ्यास इस परंपरा के द्वारा किया जाता है। इस परम्परा में ईष्टलिंग की पूजा की जाती है। वैसे कहानी यह है कि भगवान शिव ने पांच गणों की उत्पत्ति की थी। पांच गणों के पांच क्षेत्र हैं। कुछ इस तरह से जैसे आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की थी। हमारी परंपरा में पांच पीठ बदरी-केदार, काशी, उज्जैन, आंध्रप्रदेश, और कर्नाटक में स्थित है। इनमें पांच पीठों के माध्यम से यह प्रकट स्वरूप में दृष्टिगोचर है। इन्हीं को हमारी परंपरा के लोग मानते हैं। शिव की आराधना करते हैं। किसी के साथ वैर-विरोध नहीं करना, सदैव आत्मलीन होकर सत्य का साक्षात्कार में संलिप्त रहना ही इस परंपरा का मुख्य उद्देश्य है।

प्रश्न : ईष्टलिंग क्या है?उत्तर : वह इस ब्रह्मांड का एक प्रतिरूप है। न तो इससे से कुछ ज्यादा, न ही इससे कुछ कम। निर्गुण, निराकार स्वरूप ही लिंग है। आप अपनी पूजा, भक्ति, भाव, ज्ञान, वैराग्य, त्याग, तपस्या से ही इसे समझ सकते हैं। जिसकी जैसी आस्था रहेगी वह वैसे उसे समझेगा। भगवान शिव संहार के देवता हैं। पर यह संहार सृष्टि की रचना के लिए है, नहीं की अव्यवस्था के लिए। वीरशैव परंपरा के पांच पीठों के माध्यम से यही तो समझाया जाता है। सब एक हैं। फिर वह कहीं भी रह रहा हो। किसी वर्ग में पैदा हुआ हो। इसीलिए हमारी परंपरा के संन्यासी का कुल-वर्ण नहीं देखा जाता। बस परीक्षा की जाती है उसके भाव और त्याग की। जंगम परंपरा के लोग हमारे ही परंपरा को मानने वाले होते हैं। देखिए एक बात बताता हूं, हम शरीर को ही मंदिर मानते हैं। मंदिर जाना अच्छी बात है। जाना भी चाहिए। लेकिन न जा पाएं तो कोई बात नहीं। हमारी परंपरा द्वारा प्रदत्त लिंग जो कि आप शरीर पर धारण करते हैं, उसे मानिए। उसकी पूजा करें, वही कार्यफल प्राप्त होगा। यह सुविधा है हिंदू धर्म की। और यही तो विशेषता है जो जिस भाव में रहता है उसे उसी तरह वह प्राप्त होता है।

प्रश्न : लिंगायत एक अलग पहचान की मांग करती है?उत्तर : अलग पहचान तो है ही। फिर मांग कैसी? हमारी पूजा, पद्धति, साधना, अभ्यास अन्य परंपरा से अलग हैं। आपका प्रश्न इस अर्थ में है कि हमें हिंदू धर्म से अलग हो जाना चाहिए तो यह फालतू बात है। बकवास है। नासमझी का द्योतक है। हम समुद्र के बीच एक अलग टापू तो हो सकते हैं, अन्य टापू की तरह, पर हैं तो सभी समुद्र के ही बीच। यही समुद्र सनातन है। हम बड़ों से अलग कैसे हो पाएंगे। नासमझी दिखाना हो तो और बात है। शिव को मानने वाले अन्य परंपरा के भी लोग हैं। हम तो यहां तक कहते-मानते हैं कि जगत की उत्पति का मूल शिव हैं। अद्वैत के भाव को जानते हुए भी द्वैत की मुक्ति के लिए छटपटाना संदेह पैदा करता है। लिंगायत सनातन की ही एक शाखा है। इसे जितना जल्दी मान लिया जाय, उतना हितकारी होगा।

प्रश्न : आपकी परंपरा में जात-पात नहीं है। वर्णाश्रम की फिर आप कैसे व्याख्या करेंगे?उत्तर : वर्णाश्रम एक वैज्ञानिक व्यवस्था है। जाति व्यवस्था नहीं। समझा तो रहा हूं। मान कौन रहा है। न तो नेता इसे मानते हैं, और न ही जानते हैं। जिसे द्वैत में ही रहना है उसे लेकर क्या कहा जाए। मस्तिष्क ब्राह्मण, भुजा क्षत्रिय, उदर वैश्य तो पाद शूद्र हैं। शूद्रों को लेकर ही तो सारी समस्या खड़ी की गई है। वितंडावाद शुरू किया जाता है। फिर पाद-पूजन का इतना महत्व क्यों है? हमारे यहां किसी को गले नहीं लगाया जाता। श्रेष्ठों का पैर पूजा जाता है, छुआ जाता है। गुरु परंपरा में तो पाद-पूजन को सर्वश्रेष्ठ और आवश्यक क्रिया माना जाता है। दैनिक क्रिया माना जाता है। यह सारा झगड़ा राजनीति की देन है। हम बता सकते हैं, बता ही रहे हैं। कुछ मान जाते हैं और कुछ नहीं। जो समझेगा उसे ही तो समझाएंगे, बाकी को ईश्वर सद्बुद्धि दे। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं।

प्रश्न : फिर इतना झगड़ा क्यों?उत्तर : लड़ाई रोकना हमारा काम नहीं है। यह शासन-प्रशासन करेगा। हमारा काम है, सही राह बतलाना। वह कर रहा हूं। ब्राह्मण मार्गदर्शक, क्षत्रिय रक्षक, वैश्य पालक हैं तो शूद्र सेवक। इससे किसे परेशानी है। हम तो परंपरा से संत-सन्यासी होते हुए भी भगवान का सेवक घोषित करने में अपना अहोभाग्य समझते हैं। फिर अगले को क्या परेशानी आ रही है। मैं पहले भी बता चुका हूं यह गंदे खेल के सिवाय कुछ भी नहीं है।

प्रश्न : इसी फसाद ने धर्मांतरण को जन्म दिया है। इस पर आपका क्या मत है?उत्तर : यह एक कारण हो सकता है। पर यही एकमात्र कारण नहीं है। प्रलोभन भी है। भय भी है। धर्मांतरण धर्म को ध्यान में रखकर नहीं करवाया जाता। यह संख्या बल का मामला है। लोकतंत्र में संख्या बल ही सब कुछ है। इंसान के लिए इशारा ही काफी है (मुस्कुराते हुए)। आप अपने धर्म के बारे में बताइए! बताना भी चाहिए। मानना, न मानना अगले पर निर्भर करता है। मानना ही चाहिए, मान लीजिए, मानना ही पड़ेगा- यही तो धर्मांतरण का रूप रह गया है। यह त्याज्य कर्म है। इससे ज्यादा क्या कहूं।

प्रश्न : हिन्दुओं की घटती जनसंख्या पर क्या सोचते हैं?उत्तर : हिन्दुओं की घटती हुई जनसंख्या दर चिंता का विषय है। व्यक्ति राष्ट्र निर्माण के लिए सबसे जरूरी पात्र है। फिर किसी भी प्रकार का निर्माण किसके लिए किया जाता है? व्यक्तियों के लिए ही तो। एक व्यक्ति देश निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाता है। जनसंख्या को बोझ बताना एक सोची-समझी रणनीति है। फिर एक खास वर्ग ही क्यों जनसंख्या नियंत्रित करें। दूसरे क्यों न करें। इसे गहरे और वैज्ञानिक तरीके से सोचे जाने की जरूरत है। सनातनियों को समय से शादी, संयुक्त परिवार को बचाना एवं जनसंख्या बढ़ाने पर ठीक से विचार करने की जरूरत है।

प्रश्न : आरक्षण को आप किस रूप में देखते हैं?उत्तर : आरक्षण जाति के आधार पर नहीं आर्थिक आधार पर मिलना चाहिए। आर्थिक ढंग से आरक्षण देने पर भारतवर्ष जातिवाद से मुक्त हो जाएगा।

प्रश्न : आपकी पीठ-परंपरा किस तरह से सामाजिक योगदान कर रही है?उत्तर : हम गुरुकुल चलाते हैं। जहां एक ओर संस्कृत भाषा को समृद्ध करने की दिशा में कार्य कर रहे हैं, वहीं संस्कृति की दिशा सही रखने के लिए दिन-रात काम किया जा रहा है। मेधावी बच्चों को आर्थिक मदद भी देते हैं। अध्यात्म और धर्म दैनिक जीवन का एक अंग बने उसके लिए भी प्रयासरत रहते हैं।

प्रश्न : महाकुम्भ के माध्यम से आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे?उत्तर : मेरा तो यहां तक मानना है कि जो करेंगे वह युवा ही तो करेंगे। और उन्हें ही करना पड़ेगा। अन्यथा सब गड़बड़ हो जाएगा। युवाओं को ब्रह्मचर्य का पालन एवं विद्याध्ययन करना चाहिए। युवा व्यसन न करें, आचार-विचार ठीक रखें, माता-पिता के प्रति गौरव रखें। देश के प्रति भावना रखें। इस महाकुम्भ के माध्यम से हम युवाओं से अपील करते हैं, शस्त्र और शास्त्र में अपनी रुचि बनाए रखें। नये को जरूर अपनाएं पर पुराने को भूले नहीं। भविष्य की ओर हमारी आंखें हों। हमारे हाथ वर्तमान से जुड़े हों और अतीत का गौरव हम भूले नहीं। बाकी युवा वह सब काम कर लेंगे जिसकी उन्हें जरूरत होगी।

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