डॉ. आरबी चौधरीतमिलनाडु के कोयंबटूर स्थित पोलाची में तमिल समर्थकों ने 23 फरवरी को रेलवे स्टेशन के बोर्ड पर हिन्दी में लिखे नाम पर कालिख पोतकर भाषा विवाद को और गरमा दिया। रेलवे सुरक्षा बल ने इन लोगों की पहचान कर मामला दर्ज किया है। सच पूछिए तो यह घटना एक बड़े विवाद का हिस्सा है, जिसमें तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक ने केंद्र सरकार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी-2020) के माध्यम से हिन्दी थोपने का आरोप लगाया है। द्रमुक इस आरोप से इनकार करते हुए भाजपा के साथ वाक युद्ध में लगी हुई है। तमिलनाडु में हिन्दी विरोध की जड़ें 20वीं सदी की शुरुआत से हैं। विरोध प्रदर्शन तमिल संस्कृति और भाषा की रक्षा की इच्छा से प्रेरित है। अधिकांश तमिल आज भी हिन्दी को अपनी पहचान के लिए खतरा मानते हैं।इतिहास के पन्ने को पलटने पर ज्ञात होता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1937 में स्कूलों में अनिवार्य हिन्दी शिक्षण की शुरुआत की। तमिलनाडु में इसका व्यापक विरोध हआ। विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व पेरियार ई.वी. रामासामी और जस्टिस पार्टी ने किया। 1937-1940 के आंदोलन के दौरान 1,198 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया और 1,179 को दोषी ठहराया गया। सबसे बड़ा हिन्दी विरोधी आंदोलन 1948-1950 के बीच हुआ। इस दौरानहड़तालें हुईं। वर्ष 1965 में मदुरै में हिन्दी विरोधी दंगे भड़क उठे जिसके परिणामस्वरूप लगभग 70 लोग मारे गए।आज भी तमिलनाडु में हिंदी विरोध विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है। द्रमुक और अन्य दल गैर-हिन्दी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने का विरोध कर रहे हैं। जबकि भारत सरकार हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में बढ़ावा देने के प्रयास में लगी हुई है। वर्तमान विरोध ने यह स्वीकार करना आरंभ कर दिया है कि हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भी आधिकारिक भाषा बनी रहे। वर्तमान विरोध सिर्फ राजनीतिक क्रियाकलाप है। वैसे, तमिलनाडु में हिन्दी विरोध की वास्तविकता जटिल है। इसमें राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों कारक शामिल हैं। कुछ लोग तर्क देते हैं कि वर्तमान विरोध तमिल संस्कृति और भाषा की रक्षा करने की वास्तविक इच्छा से प्रेरित है। बुद्धिजीवी और आम आदमी इसे राजनीतिक दलों द्वारा लाभ प्राप्त करने के साधन के रूप में देखता है।सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 18-25 आयु वर्ग के 71 प्रतिशत लोगो ने बिना समझे-बूझे हिन्दी थोपने का विरोध किया। यूगऊ के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 18-24 वर्ष की आयु के तमिलनाडु के 63 प्रतिशत निवासियों का मानना था कि स्कूलों में हिन्दी को जरूर पढ़ाया जाए लेकिन इसे अनिवार्य नहीं बनाया जाना चाहिए। कुछ लोग तर्क देते हैं कि हिन्दी जानने से नौकरी के अवसर बढ़ सकते हैं और व्यापार और व्यापार संबंधों को सुविधाजनक बनाया जा सकता है। तमिलनाडु में भी मनोरंजन की दुनिया का लुफ्त उठाने के लिए हिन्दी भाषा को व्यावसायिक भाषा माना जाता है। लेकिन राजनीतिक के संवर्ग के लोग इसे तमिल संस्कृति और भाषा के लिए खतरा मानते हैं।नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, भारत की 60 फीसदी आबादी हिन्दी बोलती है। भाषा विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान परिदृश्य में तमिलनाडु की 40 फीसद आबादी को हिन्दी का कुछ ज्ञान है और धीरे-धीरे लोग हिन्दी को सीख रहे हैं। तमिलनाडु के स्कूलों में हिन्दी पढ़ने की गति तेज हुई है। लोग प्रदेश से बाहर जाकर अपने व्यवसाय को बढ़ाना चाहते हैं और देशभर में सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा हिन्दी का लाभ उठाना चाहते हैं। इस कार्य में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का बहुमूल्य योगदान है। सन् 1964 में सभा को संसद ने इसे ‘राष्ट्रीय महत्व की संस्था’ घोषित किया था।देखा जाए तो डुओलिंगो, इटालकी और प्रीप्ली जैसे कई ऐप और ऑनलाइन प्लेटफार्म हिन्दी भाषा के पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं और तमिलनाडु सहित भारत के तमाम हिस्सों में इन्हें काफी डाउनलोड और उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त, लिंग और ड्रॉप्स जैसे कुछ ऐप हिन्दी सीखने के लिए इंटरैक्टिव और गेमीफाइड पाठ प्रदान करते हैं, जो तमिलनाडु की युवा आबादी को आकर्षित कर सकते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, दक्षिण भारत में लगभग 30 फीसद लोग हिन्दी गाने सुनते हैं। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि तमिलनाडु में लगभग 70 फीसद छात्र हिन्दी की अज्ञानता के कारण केंद्रीय नौकरी में नहीं जा पाते हैं। इन बातों को स्वीकार करते हुए तमिलनाडु सरकार ने 1968 में हिन्दी को एक वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल किया था। अंततः, तमिलनाडु पर हिन्दी थोपने या न थोपने का निर्णय एक जटिल मुद्दा है। इसमें कई कारक शामिल हैं। एक बात बहुत स्पष्ट है कि तमिलनाडु के लोग विशेष रूप से युवा पीढ़ी भाषा की राजनीति में रुचि नहीं रखती। वह हिन्दी सीखने के लिए उत्सुक हैं। (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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