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(वीर सावरकर जयंती पर विशेष) जेल की दीवारों पर कील-कांटों से लिख दी क्रांति

अस्पृष्यता एक पाप है, मानवता पर एक धब्बा है और कोई भी इसे उचित नहीं ठहरा सकता । यह प्रसिद्ध पंक्ति विनायक दामोदर सावरकर की थी। वे एक स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, वकील और हिन्दुत्व के दर्शन के सूत्रधार थे। सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के केन्द्र लंदन में ही उसके खिलाफ क्रांतिकारी आन्दोलन संगठित किया था। उन्होंने 1857 की क्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताते हुए 1907 में लगभग 1000 पृष्ठों का इतिहास लिख डाला। उन्होंने पुस्तक ‘ द हिस्ट्री ऑफ द वॉर ऑफ इंडिपेंडेस’ लिखी थी, जिसको अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था। कारण था कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों का वर्णन किया था।

उनका जन्म 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र के नासिक के पास एक छोटे से गांव भंगूर में हुआ। वे अपने बड़े भाई गणेश सावरकर के साथ मिलकर 1904 में ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था का निर्माण किया। सावरकर ने पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में एक छात्र के रूप में अपनी राजनीतिक भागीदारी जारी रखी। वे कट्टरपंथी राष्ट्रवादी नेता लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे। तिलक भी इस युवा छात्र से इतने प्रभावित थे कि उन्हें लंदन में कानून की पढ़ाई के लिए 1906 में शिवाजी छात्रवृत्ति दिलाने में सहायता की। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में दशहरे के दिन सावरकर ने विदेशी वस्तुओं की होली जलाकर स्वदेशी आन्दोलन की अलख जगाई। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए बहुत संघर्ष किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई। सावरकर ने भारत को एक मजबूत और एकजुट राष्ट्र बनाने की अवधारणा दी , जिसे हिन्दुत्व की संज्ञा देने से भी पीछे नहीं हटे।

उन्हाेंने ‘ अखण्ड भारत ’ की अवधारणा को भी आगे बढ़ाया, जो भारत को एक साथ रखने और एकीकरण की बात करती है। उन्होंने राष्ट्रवादी विचारों को बढ़ावा देने के लिए अपनी किशोरावस्था में ही ‘मित्र मेला’ युवा संगठन की स्थापना की थी , इसके माध्यम से अनेक उत्साही युवाओं को जोड़ने का काम किया था। मदनलाल धींगरा और लक्ष्मण कन्हरे जैसे क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत बने, जिन्होंने विलियम कर्जन वाइली और नासिक के जिला कलेक्टर की हत्या कर भारतीयों को उनके जुल्म से आजादी दिलाई थी। लंदन में श्यामला कृष्ण वर्मा के इंडिया हाउस को उन्होंने क्रांतिकारियों के ट्रैनिंग सेंटर में तब्दील कर दिया था। 13 मार्च, 1910 को उन्हें लंदन से गिरफ्तार किया गया । उन पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने हथियारों की खरीद और वितरण किया।

ब्रिटिश राज के खिलाफ युद्ध छेड़ने और देशद्रोही भाषण दिए। गिरफ्तारी के समय वे कई क्रांतिकारी ग्रंथ साथ ले जा रहे थे। जिनमें उनकी प्रतिबंधित पुस्तकें भी शामिल थीं। ब्रिटिश सरकार के पास इस बात के सबूत थे कि उन्होंने भारत में 20 ब्राउनिंग हैंडगन की तस्करी की थी, जिनमें से एक का इस्तेमाल अनंत लक्ष्मण कन्हेरे ने दिसम्बर, 1909 में नासिक जिले के कलेक्टर जैक्सन की हत्या करने में किया था।

गिरफ्तारी के बाद वे फ्रांस के मर्सेल्स में जहाज से समु्रद में कूद कर भाग निकले थे। इसके बाद फिर अंग्रेज सरकार ने उनको गिरफ्तार कर लिया। 7 अप्रेल, 1911 में उन्हें कुख्यात अंडमान और निकोबार द्वीप जेल ( जिसे कालापानी के नाम से भी जाना जाता है ) में दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई । उन्होंने जेल में ही 1922 में ‘इसेंशियल ऑफ हिन्दुत्व’ नामक पुस्तक की रचना की। आज इसे आधुनिक हिंदुत्व का एक प्रमुख आधार माना जाता है। वे 1924 में जेल से रिहा होने के बाद शेष जीवन हिन्दू समाज को संगठित करने, महिलाओं के जीवन का उत्थान करने, अस्पृष्यता मिटाने में खपा दिया। वे हिन्दुत्व को किसी जाति और कर्मकांड में बांधने का विरोध जताते थे। उनका मानना था कि हिन्दू धर्म एक जातीय, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान है। हिन्दू वे हैं, जो भारत को अपनी भूमि मानते हैं, जिसमें उनके पूर्वज रहते थे। साथ ही वह भूमि जिसे वे षुद्ध या पुण्यभूमि मानते हैं वह जिसके लिए भारत पितभूमि और पवित्र भूमि दोनों हैं।

उन्होंने अस्पृष्यता के खिलाफ एक शक्तिशाली

अभियान चलाया और रत्नागिरी जिले में पतित पावन मंदिर का निर्माण कराया। इसमें दलित समुदाय के लोगों सहित सभी हिन्दुओं का स्वागत किया गया। वे तर्कसगंत से पारंपरिक आडम्बरों का विरोध जताया। जाति व्यवस्था का विरोध जताते हुए 1931 में ‘हिन्दू समाज की सात बेडियां’ शीर्षक लिखे अपने निबंध में वे बताते हैं कि अतीत के ऐसे आदर्शों का सबसे महत्वपूर्ण घटक जिसे हम आंख मूंदकर मानते आए हैं और जो इतिहास के कूदेदान में फेंक दिए जाने योग्य हैं, वह है कठोर जाति व्यवस्था।

स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर जब अंडमान निकोबार द्वीप की जेल में थे, उनके पास लिखने के लिए कोई कागज और पेन नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने उनके लिए कोई कागज उपलब्ध नहीं कराया। इसके बाद भी सावरकर ने हार नहीं मानी। उन्होंने देखा कि जेल की दीवारें सफेद रंग से पुती हुई हैं, उनके पास सन के कांटे और एक लोहे की कील थी। आजादी के मतवाले कहां रुकने वाले थे, उन्होंने दीवार पर कील और कांटे से अपने विचारों को दीवार पर लिखने लगे। जेल की एक-एक दीवार एक-एक ग्रंथ बन गई। उन्होंने स्पेंसर की अज्ञेय मीमांसा को युक्तिवाद क्रम से अंकित किया। कमला महाकाव्य की रचना उन्हीं दीवारों पर अंकित की।

एक दीवार पर उन्होंने अर्थशास्त्र की महत्वपूर्ण परिभाषाएं लिखीं। हर माह कैदियों के कमरे बदले जाते थे। उनका मुख्य लक्ष्य यह था कि हर बार हर कमरे में महत्वपूर्ण विचार लिखे जाएं। उनके पढ़ने का सभी कैदियों को मौका मिले। कैदियों को नई-नई जानकारियां मिलती रहे। इन लेखों की उम्र एक साल होती थी। हर साल उनको दीवारों से पुताई करवाकर मिटा दिया जाता था। लेकिन सावरकर ने वे विचार कंठस्थ याद कर लिए थे। बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि वीर सावरकर को वह सम्मान नहीं मिला, जो एक स्वतंत्रता सेनानी को मिलना चाहिए था। उनके देहांत पर महाराष्ट्र सरकार और केन्द्र सरकार ने शोक दिवस घोषित नहीं किया। लेकिन अब सरकार उनके किए गए स्वतंत्रता आन्दोलन को सामने लाने का प्रयास कर रही है।

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