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स्वामी विवेकानंद ः तेजस्वी भारत के स्वप्नद्रष्टा

संन्यास और वैराग्य जैसे शब्द अक्सर दीन-दुनिया से दूर आत्मान्वेषण और परमार्थ की दिशा में गहन और नितांत निजी यात्रा से जोड़ कर देखा जाता है। मुक्ति की अभिलाषा स्वाभाविक रूप से मनुष्य को अंतर्यात्रा की ओर ही आगे ले जाती है। लोक-जीवन की परम्परा में भी आत्मबोध के लिए उत्सुकता को इसी छवि में देखने की प्रथा है। इस आम धारणा के विरुद्ध उन्नीसवीं सदी के अंत में जब भारत अंग्रेजों के नियंत्रण में एक उपनिवेश था एक अद्भुत चमत्कारी घटना हुई जिसने भारत के प्रसुप्त स्वाभिमान को जगाया और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक जगत में प्रतिष्ठित भी किया। यह घटना थी भारत भूमि पर स्वामी विवेकानंद के रूप में एक ऐसी विशिष्ट प्रतिभा का अवतरण जिसने संन्यास के समीकरण को पुनर्परिभाषित किया और अध्यात्म के सामाजिक आयाम को व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इसके पीछे ग़ुलाम भारत की घोर विपन्नता, सामाजिक भेदभाव और द्वंद्व से उपजी पीड़ा का उनका साक्षात्कार प्रमुख कारक थे। गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस के संस्पर्श से नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद में रूपांतरित हुए थे। उन्होंने न केवल धर्म के अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त किया अपितु भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर मानव जाति के लिए एक नए युग का सूत्रपात किया। गुरुदेव के स्वर्गवास के बाद विवेकानंद विरक्त हो गए और देश का भ्रमण किया। देश के दैन्य को देख उनके मन में लोक-कल्याण के प्रति आकृष्ट किया।

धर्म के उत्थान और मानव-कल्याण के लिए गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुग्रह से सिक्त एक महाशक्ति स्वामी विवेकानंद में घनीभूत हुई थी। इसका सुपरिणाम था कि अल्पायु में ही तेजस्वी और प्रतिभाशाली युवा स्वामी ने वह कर दिखाया जो सामान्य व्यक्ति के लिए अकल्पनीय था । सुदृढ कद काठी और भव्य व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानन्द तीक्ष्ण बुद्धि और तीव्र स्मरणशक्ति से सम्पन्न थे। उनकी भौतिक उपस्थिति ऐश्वर्यशाली थी। उन्होंने भारत में अनेक यात्राएँ कीं और सीखते सिखाते रहे। उनहोने पाश्चात्य और भारतीय चिंतन प्रणालियों को भलीभाँति आत्मसात् किया।

वर्ष 1892 में शिकागो में हुए सर्वधर्म सम्मेलन में उनकी भागीदारी ने भारत के प्रति शेष विश्व की दृष्टि को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई। औपचारिकता से दूर हृदय से निकले उनके शब्दों ने जादू का काम किया। उनके व्याख्यान ने सबके मन को छू लिया । उन्होंने हिंदू धर्म को सभी धर्मों के उत्स या विचारधाराओं की जननी के रूप में प्रस्तुत किया जिसकी मुख्य शिक्षा थी ‘एक दूसरे को समझो और स्वीकार करो’। पूरे वक्ता समुदाय में एक वही ऐसे वक्ता थे जो सब दृष्टियों से खुल कर संवाद कर रहे थे। वे सब को एक सार्वभौम सत्ता में आबद्ध कर रहे थे। वह तर्क दे रहे थे कि समन्वय से ही मनुष्य में निहित दिव्यता और उत्थान की अपरिमित संभावना है। स्वामी विवेकानंद की वाग्मिता ने सबको प्रभावित किया। कुछ लोग इससे आतंकित भी हुए और विरोध भी किया पर वे डिगे नहीं। उन्होने पारस्परिक ईर्ष्या और संकीर्णता का परित्याग कर हर एक की धार्मिक और सामाजिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हए लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने की ज़रूरत पर बल दिया और विचारों के आदान– प्रदान की आवश्यकता प्रतिपादित की ।

‘अद्वैत’ की अवधारणा की अद्भुत व्याख्या करते हुए उन्होंने एक सत्य की अनेक व्याख्याओं को संगत बताया। भारतीय दृष्टि की विशालता को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने इस ईश्वरीय भाव को उद्धृत किया ‘किसी भी रूप में जो मेरे पास आएगा, उसको मिलूँगा‘ जैसा गीता में कहा गया है: ‘यो यथा माम् प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ । साथ ही विभिन्न मार्गों से चल कर सभी ईश्वर तक पहुँचेंगे क्योंकि एक सत्य के प्रति दृष्टियाँ कई हो सकती हैं: एकं सत् विप्रा: बहुधा वदंति । धार्मिक असहिष्णुता और कट्टरता को समाप्त करने का आह्वान सबको प्रभावित करने वाला था। सार्वभौम धर्म का स्वरूप और संभावना के प्रति वे आश्वस्त थे।

अमेरिका की यात्रा ने विवेकानंद की तेजस्विता, स्वाधीनता और निष्ठा को सम्मान दिलाने में प्रमुख भूमिका निभाई। वे एक लोकप्रिय और प्रभावी वक्ता के रूप में शीघ्र ही प्रसिद्ध हो गए। युक्ति और तर्क के साथ स्वामी जी ने वेदान्त के संदेश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित किया और योग तथा आत्म-ज्ञान जैसे विषयों को प्रासंगिक साबित करते हुए उनमें लोगों की रुचि भी बढाई। स्वयं धर्ममय जीवन के एक जीते जागते आदर्श के रूप में स्वामी जी ने अनेक लोगों को प्रभावित किया और अनेक विद्वान और विदुषियाँ उनके अनुयायी और शिष्य बन गए। वैश्विक परिभ्रमण और सार्वभौम धर्म का प्रचार करते हुए वे अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, तथा स्विट्जरलैंड आदि देशों में चार वर्ष की अविराम बौद्धिक यात्रा की। भारत के विषय में पाश्चात्य मानस को एक नई दृष्टि तो दी ही स्वयं स्वामी विवेकानंद के अभीष्ट सार्वभौम विश्व धर्म के आदर्श को परिपुष्ट किया। वह यह भी सोचने लगे कि यदि भारत के महान चिंतन को प्रतिष्ठित करना है तो पश्चिम में उन विचारों के बीजों को बोना होगा।

मई 1897 में अपने पूज्य गुरुदेव के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए स्वामी विवेकानंद द्वारा ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की गई। इसका प्रमुख उद्देश्य ‘उन सत्यों का प्रचार करना निश्चित किया गया जिन्हें श्री रामकृष्ण ने मानवता के कल्याण के लिए आने आचरण द्वारा प्रतिपादित किया था । संस्था मनुष्य जाति को उसकी लौकिक, मानसिक, और आध्यात्मिक उन्नति हेतु उनका आचरण करने में उनकी सहायता करेगी। इस संस्था का कर्तव्य होगा रामकृष्ण द्वारा शुरू किए गए विभिन्न धर्मों को एक ही शाश्वत धर्म के वविध रूप मानते हुए उनके अनुयायियों के बीच भाई-चारे की स्थापना करने के लक्ष्य को समुचित भाव से निर्देशित करना। इसके लिए तीन प्रकार के कार्यक्रम निश्चित हुए : ऐसे लोगों को प्रशिक्षित करना जो ज्ञान या विज्ञान सिखाने में समर्थ हों जिससे आम जनों का भौतिक और आध्यात्मिक उत्थान हो सके। शिल्प और उद्योगों को विकसित और प्रोत्साहित करना दूसरा कार्यक्रम था। मिशन श्री राम कृष्ण के जीवन में उद्घाटित वेदांत और अन्य धार्मक विचारों का जनसाधारण के बीच प्रसार करेगा। इस हेतु मिशन की भारतीय और विदेशी दो शाखाएँ स्थापित होंगी।

स्वामी विवेकानंद ने स्वदेशवासियों को कर्मयोग में दीक्षित करने का ब्रत ठाना। उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया और सर्वत्र जन समुदाय को प्रेरित प्रोत्साहित करते रहे। समाज में व्याप्त निश्चेष्ट जड़ता को देख वे कहते थे – उठो जागो और स्वयं जग कर दूसरों को भी जगाओ । समाधान के रूप में वे वेदान्त को कर्म के स्तर पर लाने की सतत चेष्टा करते रहे । उनका लक्ष्य था पारस्परिक सद्भाव और सहिष्णुता को ध्यान में रखते हुए पूर्व और पश्चिम के भेद से ऊपर उठ कर ऐसी सार्वभौमिक धर्मदृष्टि का प्रतिपादन जो समस्त मानवता के लिए उपयोगी हो । पश्चिम के साथ सम्पर्क ने स्वामी जी को जहां पौरुष और बहुमुखी व्यक्तित्व के महत्व से प्रभावित किया वहीं उनको भारतीय आत्मा के साथ और अधिक निकटता भी पैदा की। एक अपरिग्रही और मात्र ईश्वर के भरोसे रहने वाले स्वामी ने अपनी शक्ति को संगठित किया । भारत में अपने अभियान को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानंद ने जो वक्तव्य मद्रास में दिया था वह आज भी मन को आलोकित करता है :

मेरे भारत जागो ! कहाँ है तुम्हारी प्राण शक्ति? तुम्हारी ही अमर आत्मा में है वह … प्रत्येक राष्ट्र का, प्रत्येक व्यक्ति की भाँति जीवन का एक मूल उद्देश्य होता है, एक केंद्र बनता है, वादी स्वर होता है जिसका अवलम्बन कर अन्य स्वर संगीत में स्वर-संगति पैदा करते हैं / जो राष्ट्र अपनी प्राण शक्ति को छोड़ना चाहता है, सदियों से प्रवाहित अपनी धारा की दिशा को बदलना चाहता है, वह राष्ट्र नष्ट हो जाता है। किसी राष्ट्र की प्राणशक्ति राजनैतिक सत्ता है जैसे इंग्लैंड की, तो किसी की कलात्मक जीवन और किसी की कुछ और। भारत का केंद्र है – धार्मिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन संगीत का वही आदि स्वर है इसलिए यदि तुम अपने धर्म को त्याग कर राजनीति और समाज को पकड़ोगे तब तुम लुप्त हो जाओगे। समाज सुधार एवं राजनीति की शिक्षा तुम्हें अपने धर्म के जीवंत माध्यम से देनी होगी …प्रत्येक व्यक्ति की भाँति प्रत्येक राष्ट्र को अपना मार्ग चुनना है। हम युगों पूर्व अपना मार्ग चुन चुके हैं और वह है अनित्य से आत्मा का मार्ग… इसे कोई कैसे त्याग सकता है? … तुम कैसे अपने स्वभाव को बदल सकते हो?”

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