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अप्रैल की गौरवगाथा: लाहौर पर मराठा और रणजीत सिंह की दोहरी विजय

सात शताब्दियों तक दमनकारी विदेशी आक्रान्ताओं के आधिपत्य में रहने के बाद 18वीं सदी में भारतभूमि की अस्मिता ने अप्रैल मास में दो बार लाहौर को स्वतंत्रता की सांस दी। एक बार 1758 में मराठा सेनापति रघुनाथ राव और मल्हार राव होलकर के नेतृत्व में और दूसरी बार 1799 में महाराजा रणजीत सिंह के विजयी अभियान के माध्यम से। इन दोनों ऐतिहासिक क्षणों में अप्रैल मास न केवल विजय का प्रतीक बना, बल्कि नागरिक सम्मान और स्वाभिमान का गौरवपूर्ण उत्सव भी बना।

11 अगस्त 1757 को मराठों ने दिल्ली को अफगान आधिपत्य से मुक्त कर स्वराज का उद्घोष किया। इसके तुरंत बाद वे खैबर तक बढ़े और मार्च 1758 में सरहिन्द विजय के साथ गुरु गोविन्द सिंह के अमर साहेबजादों की शहादत स्थली पर भगवा ध्वज फहराया। अप्रैल 1758 में रघुनाथ राव और मल्हार राव ने लाहौर पर विजय प्राप्त की और 20 अप्रैल को शालीमार बाग में लाहौर के नागरिकों ने उनका अभूतपूर्व अभिनंदन किया। इसी क्रम में तुकोजी होलकर ने अटक और पेशावर पर विजय प्राप्त कर, स्वराज का परचम सिन्धु पार खैबर तक फहरा दिया। यह क्षण भारतवर्ष के स्वाभिमान का शिखर था, जब दक्षिण एशिया का बड़ा भाग स्वराज के भगवे ध्वज के अंतर्गत आया।

महाराजा रणजीत सिंह ने जुलाई 1799 में लाहौर को विजित कर अपनी राजधानी बनाया। इसके पश्चात 12 अप्रैल 1801 को उनका भव्य राजाभिषेक एवं नागरिक अभिनंदन हुआ। उनके युद्ध ध्वज में दशभुजा माँ दुर्गा, वीरवर हनुमान और लक्ष्मण की छवियाँ अंकित होती थीं, जो राष्ट्रधर्म, शक्ति और सेवा के प्रतीक थे। रणजीत सिंह ने न केवल पश्चिम में खैबर दर्रे तक और उत्तर में जम्मू-कश्मीर तक साम्राज्य फैलाया, बल्कि ईस्ट इंडिया कम्पनी को भी पचास वर्षों तक सतलज पार नहीं बढ़ने दिया।

लाहौर जैसे ऐतिहासिक नगर में नागरिकों द्वारा अपने विजेताओं का स्वतःस्फूर्त अभिनंदन भारत के इतिहास में अत्यंत दुर्लभ प्रसंग हैं। चाहे वह 1758 का मराठा विजयोत्सव हो या 1801 का रणजीत सिंह का अभिषेक– ये दोनों अवसर लाहौर के स्वराज गाथा में स्वर्णाक्षरों से अंकित हैं। इन प्रसंगों ने यह सिद्ध किया कि जनचेतना जब जागती है, तो केवल सैन्य विजय ही नहीं, सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी होता है।

लाहौर पर अप्रैल की इन दो विजयों ने भारतवर्ष को यह स्मरण कराया कि स्वराज केवल राजनीतिक सत्ता का नाम नहीं, वह सांस्कृतिक चेतना, परंपरा और जनभागीदारी का उत्सव भी है। रघुनाथ राव और रणजीत सिंह की यह दोहरी विजयगाथा न केवल इतिहास की गौरवगाथा है, बल्कि आज के भारत के लिए प्रेरणा की धरोहर भी है।

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