दिल्ली की सत्ता पर पिछले दस साल से काबिज आम आदमी पार्टी को इस बार के विधानसभा चुनाव में बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से जन्मे इस राजनैतिक दल के नेता खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिरे हुए हैं। जिस राजनैतिक जमा पूंजी के साथ इस राजनैतिक दल का गठन किया गया था, बीते एक दशक में ही उसके नेताओं ने इसे पूरी तरह गंवा दिया है। पार्टी की स्थापना के समय जो उच्च नैतिक मानदंड और आदर्श स्थापित किया गए थे वे दूर-दूर तक पार्टी नेताओं के व्यवहार में नजर नहीं आ रहे हैं। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल विपक्ष के साथ- साथ अपने पूर्व सहयोगियों के भी निशाने पर हैं।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान अण्णा हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू हुआ। उस समय टू जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ गेम्स, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी और कोयला घोटाले जैसे लाखों करोड़ रुपये के घपलों के समाचार लगातार मीडिया की सुर्खियां बन रहे थे। तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार के दौरान हुए घोटालों के खिलाफ सीएजी की रिपोर्ट और न्यायालय के आदेशों से लोगों को लगने लगा था कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग या तो खुद भ्रष्टाचार में लिप्त या भ्रष्टाचारियों को उनका संरक्षण प्राप्त है। लगातार दूसरी बार देश की सत्ता पर काबिज होने से कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों का दंभ चरम पर था। भ्रष्टाचार से जुड़े हर सवाल के जवाब में वे एक ही बात कहते नजर आते थे कि 2009 के आम चुनाव में दूसरी बार सत्ता सौंप कर देश की जनता ने उन्हें क्लीन चिट दे दी है। ऐसे में समाजसेवी अण्णा हजारे के नेतृत्व में इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया गया। इस आंदोलन की सिर्फ एक मांग थी कि देश में जनलोकपाल बनाया जाए। असीम शक्तियों से सम्पन्न यह जनलोकपाल देश से भ्रष्टाचार को खत्म कर देगा। इसी समय योग गुरू बाबा रामदेव ने भी विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने की मांग को लेकर दिल्ली में आंदोलन शुरू किया। जिसे सरकार ने निर्ममता पूर्वक कुचल दिया।
देश की जनता राजनेताओं, बड़े कॉरपोरेट घरानों और नौकरशाही की दुरूभि संधि से दिनों-दिन बढ़ते भ्रष्टाचार को अपने दैनिक जीवन में महसूस कर रही थी। जनलोकपाल का जो खाका अण्णा हजारे के आंदोलन के समय पेश किया गया उसे देख कर लोगों ने महसूस किया कि इससे भ्रष्टाचार की समस्या पर काफी हद तक काबू किया जा सकेगा। लेकिन सत्ताधारी कांग्रेस के नेताओं ने जनलोकपाल बनाने की मांग का उपहास करते हुए आंदोलन से जुड़े नेताओं को खुद राजनीति में आकर इस तरह का कानून बनाने की चुनौती दी। अण्णा आंदोलन को देशभर में मिले व्यापक जनसमर्थन और तत्कालीन सत्ताधारी दल कांग्रेस के विरुद्ध तैयार हो रहे जनमत से उत्साहित आंदोलन से जुड़े कुछ नेताओं ने राजनैतिक क्षेत्र में व्याप्त गंदगी को साफ करने के लिए लिए स्वयं इस दलदल में उतरने की योजना बनाई। हालांकि अण्णा हजारे इस आंदोलन से जुड़े लोगों के राजनीति में उतरने के विचार से सहमत नहीं थे।
वैकल्पिक राजनीति के नए विचार के साथ अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास, शाजिया इल्मी आदि ने एक नया राजनैतिक दल बनाने की योजना तैयार की और इसे नाम दिया गया- आम आदमी पार्टी। इस राजनैतिक दल की औपचारिक घोषणा के लिए दिन चुना गया 26 नवम्बर 2012 का ताकि देश की जनता को भारत के संविधान के प्रति पार्टी की प्रतिबद्धता का सीधा संदेश दिया जा सके। संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 को ही देश के संविधान को स्वीकृति प्रदान की थी। इसी समय पार्टी की विचारधारा को स्पष्ट करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने कहा था ‘हम आम आदमी हैं। अगर वामपंथी विचारधारा में हमारे समाधान मिल जायें तो हम वहां से विचार उधार ले लेंगे और अगर दक्षिणपंथी विचारधारा में हमारे समाधान मिल जायें तो हम वहां से भी विचार उधार लेने में खुश हैं।’ आम आदमी पार्टी की स्थापना के समय सबसे ज्यादा जोर देते हुए कहा गया कि अब तक देश की सत्ता पर काबिज रहे राजनैतिक दलों में तमाम प्रकार के दुर्गुण आ गए हैं। नया दल इन दुर्गुणों से मुक्त रहकर नए प्रकार से राजनीति करते हुए देश को वैकल्पिक राजनीति का मॉडल देगा। उस समय ऐलान किया गया कि इस दल में ‘हाई कमान कल्चर’ नहीं होगा, सभी निर्णय सामूहिक तौर पर लिए जाएंगे। पार्टी नेताओं को भ्रष्ट आचरण से दूर रखने के लिए पार्टी का अपना लोकपाल होगा जो सभी नेताओं की निगरानी करेगा।
बड़े-बड़े आदर्शों के साथ शुरू हुई आम आदमी पार्टी ने चंद महीनों के भीतर खुद को पारंपरिक राजनीति के अनुरूप ढालना शुरू कर दिया। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 में पहली बार जनता की अदालत में पहुंची आम आदमी पार्टी के 28 उम्मीदवारों को लोगों ने विधानसभा पहुंचा दिया। सत्ता की चाह में बच्चों की कसम और सभी आदर्शों को भुलाकर अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली। इसके बाद एक-एक करके उन सारे आदर्शों को तिलांजलि दे दी गई जिनकी बात 26 नवम्बर 2012 को की गई थी। पार्टी के अधिकांश संस्थापक सदस्यों प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, शाजिया इल्मी, कुमार विश्वास आदि ही नहीं बल्कि पार्टी के आंतरिक लोकपाल एडमिरल रामदास तक को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। आम आदमी पार्टी से जुड़े नेता सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को सादगी पूर्ण जीवन की बात कहते हुए छोटे मकान, छोटी कार और सीमित सुरक्षा की नसीहत देते थे लेकिन सत्ता में आते ही आआपा नेता उन सभी सुख-सुविधाओं को भोगते नजर आ रहे हैं जिसे लेकर वे राजनेताओं की तीखी आलोचना किया करते थे। खासतौर पर अरविन्द केजरीवाल पर कोरोना काल में अपने सरकारी आवास की मरम्मत पर 33 करोड़ रुपये खर्च करने के आरोप लगे। लाखों रुपये के पर्दे, टॉयलेट और टायल्स आदि को लेकर चर्चा में आया उनका आवास शीशमहल के तौर पर आम लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। इसके अलावा अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन समेत पार्टी के तमाम नेता और मंत्री महिला उत्पीड़न, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में जेल की हवा खा चुके हैं। जहां तक हाईकमान संस्कृति की बात है तो ऐसा लगता है कि अरविन्द केजरीवाल अब पार्टी के स्थायी राष्ट्रीय संयोजक हो चुके हैं। उनके शब्द पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए अंतिम आदेश है और मुख्यमंत्री पद के एकमात्र दावेदार भी वही होंगे। अगर मजबूरी में कोई दूसरा मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर भी बैठेगा तो उसे ‘भरत भाव’ में रहना होगा।
भ्रष्टाचार विरोधी अण्णा आंदोलन के गर्भ से जन्मी आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी पूंजी उसके नेताओं की भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रतिबद्धता और सादगी पूर्ण जीवन थी। लेकिन इन दोनों मामलों में आआपा नेताओं खासा निराश किया। पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद दिल्ली में जनलोकपाल बनाने की कोशिश करने वाली आआपा ने पंजाब में सरकार बनने के बाद जनलोकपाल का नाम भी नहीं लिया है। भ्रष्टाचार के आरोपित और सजायाफ्ता नेताओं के साथ मंच साझा किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं शराब घोटाले में जेल जाने के बावजूद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा न देकर अरविन्द केजरीवाल ने आआपा की सारी राजनैतिक पूंजी गंवा दी। दिल्ली विधानसभा चुनाव सीधे तौर पर केजरीवाल के राजनैतिक अस्तित्व से जुड़ा है, ऐसे में उनके पास अपना राजनैतिक किला बचाने के लिए लोकलुभावन घोषणाओं का ही सहारा बचा है।