– स्वामी गोमतीदास के आग्रह पर श्रीहनुमान पत्थर में दर्शन देने लगे, चित्रकूट से मूर्ति लेकर अयोध्या आए
अयोध्या, 27 मार्च (हि.स.)।राम नगरी में प्रतिष्ठित ,शीर्ष ,सिद्ध हनुमत पीठ हनुमत निवास मंदिर का अपना एक अलग स्थान है। मंदिर की स्थापना पूज्य स्वामी श्री गोमतीदास जी महाराज ने की थी। उनकी पुण्यतिथि पर गुरुवार को धामगमन का उत्सव-भण्डारा होगा।
मंदिर के वर्तमान महंत मिथिलेश नंदनी शरण महाराज ने मंदिर संस्थापक श्री महाराज जी के संदर्भ में बताया कि इकहरी काया, तीक्ष्ण एवं बोलते हुये नेत्र, सघन पञ्चकेश, ऊर्ध्वपुण्ड्र शोभित भाल एवं भावपूर्ण मुखमुद्रा के साथ गोद में श्रीहनुमान् जी महाराज को सँभाले एक तपस्वी सन्त अयोध्या धाम के सन्त सद्गृहस्थों के आकर्षण और आदर का विषय हैं। श्रीलक्ष्मणकिला, नृत्यराघव कुञ्ज, सेठ प्रह्लाददास जी द्वारा नवनिर्मित सन्त निवास और श्रीहनुमानगढ़ी आदि स्थलों पर कभी-कभी दर्शन देते हुये इन महाविभूति के बारे में पर्याप्त सम्भ्रम है। कोई कहता है श्री हनुमान् जी के इनको इच्छा-दर्शन होते हैं, कोई कहता है इनसे हनुमान् जी महाराज बातचीत करते हैं, कोई कहता है युगलसरकार का दर्शन इनको प्राप्त है और कोई कहता है कि चित्रकूट में सुदीर्घ तपस्या करके आये ये बड़े पहुँचे हुये सिद्ध हैं। पर बात असल में ये है कि – “ये छिपी हुई इक सच्चाई इसे जानने वाले जानते हैं” और ये जानने वाले हैं रसिक शिरोमणि पूज्य पण्डित श्रीजानकीवरशरण जी महाराज, जिनके पास स्वामी विवेकानन्द दर्शनार्थ पधारे हैं। जानने वाले हैं पूज्य पण्डित श्रीरामवल्लभाशरण जी महाराज जिनका ज्ञान-वैराग्य किसी आश्चर्य से कम नहीं। जानने वाले हैं परम नामानुरागी श्रीरूपकला जी महाराज। सम्पूर्णप्राय भारत का भ्रमण करके श्री अयोध्या धाम में रमे इन विलक्षण सन्त को पूज्य स्वामी श्रीगोमतीदास जी महाराज के नाम से जाना जाता है। दुर्ग्याने के श्रीराममन्दिर के सिद्ध सन्त स्वामी श्रीसरयूदास जी महाराज के कृपापात्र इन सन्त को लक्ष्मणकिले के प्रथम महान्त पूज्य श्रीपण्डित जी महाराज ने विशेष अनुग्रहपूर्वक रसिकोचित सम्बन्ध दीक्षा प्रदान की है। इस सम्बन्ध से श्रीगोमतीदास जी महाराज ‘श्रीमतीशरण’ कहलाते हैं। श्रीपण्डित जी महाराज ने आपको लाकर चण्डीपुर वाले मन्दिर में स्थापित किया है। आपके उपास्य श्रीहनुमान् जी इस मन्दिर में विशेष उत्सव करके पधराये गये हैं और चण्डीपुर वाला मन्दिर श्रीहनुमत्-निवास हो गया है। महाराज जी ने बताया कि सिद्धों की सराय कहलाने वाली श्रीरामपुरी अयोध्या में एक नया चरित्र लोगों के चित्त पर चढ़ा है-परम सिद्ध स्वामी श्री गोमतीदास जी महाराज। होशियारपुर-पंजाब के मुकेरियाँ का जन्म, अमृतसर (दुर्ग्याने) की गुरुपरम्परा, आचार्यपीठ श्रीलक्ष्मणकिले की उपासना, भक्तवाञ्छाकल्पतरु श्रीहनुमान् जी की एकनिष्ठ आराधना, सतत तप-अनुष्ठान और सन्त-सेवा की अजस्र परम्परा ने श्रीहनुमत्-निवास को सिद्धपीठ श्रीहनुमत्-निवास बना दिया है। इसी सिद्धपीठ के परम रसिक समाधिसिद्ध महापुरुष स्वामी श्रीरामकिशोर शरण ‘कोठेवाले’ सरकार की ख्याति चतुर्दिक् है। अनन्य भाव से समाराधन में लीन रहने वाले ‘सन्तुष्टः येनकेनचित्’ पूज्य स्वामी श्रीसियारघुनाथ शरण जी महाराज श्री हनुमत्-निवास के समुज्जवल रत्न रहे हैं। आधुनिक अयोध्या की उत्कान्त वैचारिकी एवं प्राचीन अयोध्या की आत्मवत्ता के प्रतिनिधि रहे परमपूज्य श्री फलाहारी जी महाराज इसी परम्परा के कीर्त्ति-कुसुम हैं। सिद्धपीठ श्रीहनुमत्-निवास की स्थापना के बाद इसकी परम्परा को इसके संस्थापक स्वामी श्रीगोमतीदास जी महाराज ने अपने विरक्त शिष्य श्री रघुनन्दनशरण जी महाराज को सौंपा। प्रथम महान्त के रूप में आश्रम की साधना और सेवा को आपने समाज की विशेष श्रद्धा का केन्द्र बना दिया। प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष में विस्फीत शिष्य समुदाय, दुःख-शोकादि से निवृत्ति के लिये बँटने वाली नित्य होम की विभूति, श्रीहनुमान् जी महाराज की जयन्ती और छठी महोत्सव का अद्वितीय आयोजन तथा श्रीराम जन्मभूमि जैसे प्रसंग में सक्रिय भूमिकाओं ने स्वामी श्रीरघुनन्दनशरण जी महाराज को अयोध्या की प्रथम पंक्ति में ख्यापित किया। महाराज जी ने बताया कि विक्रम की 19वीं शती के मध्यकालीन सात दशकों को अपनी उपस्थिति से आलोकित करने वाले पूज्य स्वामी श्री गोमतीदास जी महाराज ने चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को अपने आराध्य प्रभु की नित्य सेवा में प्रवेश किया।
“भौम त्रयोदशि असित मधु, असी सात के जात। संत सिरोमनि सुखद गुरु, त्याग्यौ भव हर्षात॥ मंगल दिन मंगल अवध, मंगल सरयू नीर। मंगल तन मंगल महल, भेंट्यो सिय रघुवीर॥”
उन्होंने बताया कि स्वामी श्री गोमतीदास जी महाराज के धाम पधारने की तिथि से एक ही दिन के पश्चात् प्रायः छत्तीस वर्ष बाद पूज्य महान्त श्रीरघुनन्दनशरण जी महाराज ने भी नित्यधाम की यात्रा की। सुना जाता है कि अपने देहत्याग से पूर्व अपने शिष्य महान्त श्रीवैदेहीरमणशरण जी को पीठासीन करते हुये उन्होंने कहा था कि सद्गुरुदेव से एक दिन बाद हम जायेंगे जिससे हमारा और उनका भण्डारा साथ-साथ हुआ करेगा। आज दोनों विभूतियों का समेकित भण्डारा है। सन्तों की परम्परा जन्मोत्सवधर्मी नहीं रही है। यह संसार जिससे जीवनपर्यन्त बचना है, इसमें आने का उत्सव कैसा ! उत्सव तो अपने प्राण-प्यारे प्रभु की नित्य-सन्निधि पाने का हो। वही परम्परा चलती है। धामगमन का उत्सव-भण्डारा।