स्वतंत्रता आन्दोलन के समय से ही यह अनुभव किया जाने लगा था कि सदियों की गुलामी के चलते भारतीय समाज में अपनी आंतरिक इच्छा शक्ति, आत्म विश्वास, नवाचार की खोज करने की बौद्धिक क्षमता, आपसी विश्वास, की भारी कमी आ गई है। सदियों से दबे कुचले समाज को अपने शासकों के शोषण को झेलते हुए जैसे-तैसे दांव पेच से जीवनयापन करने के लिए समझौते करते हुए समय निकालने की आदत हो गई है। कभी धर्म बदल कर तो कभी शासकों के शोषण की कमी अपने से कमजोर वर्गों का शोषण करके पूरी करने के प्रयासों के आदी हो कर अपने झूठे अहंकार को संतुष्ट करने के प्रयासों के चलते खंडित समाज की रचना हो चुकी है। देश का शासन संभालते हुए राष्ट्र पुर्निर्माण करने का काम सिर पर है। इस काम को कैसे किया जाए यह चुनौती आसान नहीं थी। एक ओर देश को भारतीय दृष्टि से अपनी नींव पर खड़ा करने की समझ थी, जिसके समर्थक गांधी और उनकी सोच पर विश्वास करने वाले लोग थे, तो दूसरी ओर अंग्रेजी सोच से प्रभावित नेहरू और उनके वैचारिक समर्थक थे। हालांकि गांधी ने इस बहस को सार्वजनिक करने के प्रयास किए किन्तु नेहरू ने इस बहस को यह कह कर टाल दिया कि इस बात का फैसला तो चुने हुए प्रतिनिधि ही करने के अधिकारी होंगे।
यह बहस इसलिए भी आगे न बढ़ सकी क्योंकि उस समय सबसे पहली प्राथमिकता स्वतंत्रता प्राप्त करना थी। इस बहस से यह खतरा था कि आपसी एकता के अभाव का संदेश जनमानस में जाता। दूसरी ओर सांप्रदायिक आधार पर द्विराष्ट्र सिद्धांत के समर्थक देश की एकता को खतरा पेश कर रहे थे, जिनका नेतृत्व जिन्ना कर रहे थे। उनको संरक्षण देने का काम परोक्ष रूप से अंग्रेजी सरकार कर रही थी ताकि भारत को कमजोर करके किसी न किसी रूप में अपना प्रभुत्व बनाए रखा जा सके। खासकर सोवियत रूस के नजदीक अपनी सैनिक उपस्थिति भी उनका एक उद्देश्य था, जिसे कश्मीर समस्या के माध्यम से वे कुछ हद तक हल कर पाए। अंग्रेज और जिन्ना अपनी चाल में सफल भी हो गए किन्तु हम वहां भी गलती का शिकार हो गए। जब दो धर्मों के आधार पर देश बांट दिए गए तो बेहतर यही होता कि शांति पूर्ण तरीके से गैर मुस्लिम भारत में आ जाते और मुसलमान पकिस्तान चले जाते। किन्तु हिन्दू मुस्लिम आबादियों का आदान प्रदान भयंकर मार काट में बदल गया।
अंग्रेज सेना जानबूझ कर मूकदर्शक बनी रही। आबादियों का पूर्ण प्रत्यर्पण भी न हो सका और आज दिन तक आपसी टकरावों की समस्या से देश को जूझना पड़ रहा है। हालांकि भारतीय नेतृत्व का उस समय का फैसला मानवतावादी था किन्तु सांप्रदायिक अहंकार में उसके महत्व को समझने में भारतीय राष्ट्र विफल रहा। वर्तमान में इस समस्या को ऐतिहासिक बोझ से बाहर निकल कर मानवतावाद से ही हल किया जा सकता है, जो दोतरफा ही होना चाहिए। मुसलमानों को भी यह समझना होगा कि हिन्दू बहुल देश में आप अपनी धार्मिक मान्यताओं को मानने में पूर्णत: स्वतंत्र हैं, किन्तु आप भी हिन्दू मान्यताओं के पालन में बाधक न बनें। यदि आप मूर्ति पूजा, भजन गाने, शंख, घंटे की आवाज, और नाचने गाने का बुरा मानने लगेंगे तो झगड़े कैसे रुकेंगे। हमें एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होने, मुबारक देने, की संस्कृति विकसित करनी होगी। रहीम, रसखान, खुसरो सरीखे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जिनसे मिल-जुल कर रहना और एक दूसरे के विकास पर खुश होना सीखना होगा।
गांधी जी की यह सोच बिलकुल सही थी कि भारत को भारतीय तरीके से सरकार बनाने के तरीके नए हालात में खोजने होंगे। उन्होंने ग्राम स्वराज्य का दर्शन दिया, जिसे वर्तमान वैश्विक सन्दर्भों में परिभाषित और विकसित किए जाने की जरूरत थी। किन्तु हमने पूर्ण पाश्चात्य तरीके को अपनाया। पंचायत, जिसको शासन का बुनियादी स्तंभ होना था उसे यूरोपियन स्थानीय स्वशासन की नकल बना कर छोड़ दिया। सौभाग्य से 73वें संविधान संशोधन से पंचायतों को संवैधानिक दर्जा दिया गया किन्तु अभी तक भी वे शासकीय दिशा-निर्देशों की गुलाम ही हैं, क्योंकि वे जमीन से नहीं उगाई गईं। आरोपित की गई हैं। उन्हें अपने आत्मविश्वास को आधार बनाने में न जाने अभी कितना समय लगेगा। पाश्चात्य सोच में प्रशिक्षित राजनैतिक नेतृत्व और प्रशासन यह होने भी देगा या नहीं।
धर्म निरपेक्षता दूसरी बड़ी चुनौती है। भारत के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सर्व धर्म सम भाव ही हो सकता है। यहां धर्म मुक्त शासन संभव नहीं है। हालांकि, बाबा साहब आंबेडकर ने धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान में नहीं रखा था जो बाद में इमरजेंसी में इंदिरा जी के समय में डाला गया। किन्तु भारतीय धार्मिक संस्कार स्वभाव से ही धर्मनिरपेक्ष है, क्योंकि इसका उदय और विकास ही विविध तार्किकवाद संवाद से ही हुआ है। इसमें मतान्तर को आदर से देखने की परंपरा है। हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख,और विविध आदिवासी धार्मिक परंपराओं में तर्क को स्थान है और प्रकृति के प्रति श्रद्धा और संशोधन को मान्यता विद्यमान है, जो आज के पर्यावरण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्मांतरण की छूट देना भारतीय परंपरा को कमजोर करने वाला ही सिद्ध होगा, क्योंकि अब्रह्मिक धर्मों में अन्य धर्मों को आदर से देखने की परंपरा नहीं है। प्रकृति उनके लिए उपभोग की वस्तु है। उनके लिए अपने धर्म में धर्मांतरण करवाना पुण्य का काम है जबकि भारतीय परंपरा में अपने धर्म को छोड़ना और दुसरे के धर्म को छुड़वाना दोनों ही गलत हैं।
हर धर्म में समय से कुछ कमियां आ जाती हैं, इसलिए स्वयं ही उनके संशोधन को तैयार रहना चाहिए। गांधी ने इस दिशा में जातिवादी भेदभाव को समाप्त करने के लिए खुले आम आवाज उठाई और जीवनपर्यन्त उसके लिए सच्चाई से लगे रहे। इस परंपरा को आगे बढ़ाने और विस्तारित करने की जरूरत है। बाबा साहेब ने संवैधानिक रूप से जातिवादी भेदभाव से लड़ने के उपकरण उपलब्ध करवाए। सामाजिक रूप से इस कार्य की महत्ता और जरूरत को एक सभ्य समाज के अंदर स्थापित करने का महती कार्य गांधीजी द्वारा शुरू किया गया। बाबा साहेब की भारतीय परंपरा के सकारात्मक पक्षों के प्रति आस्था इस बात से भी पता चलती है कि जब उन्हें लगा कि हिन्दू रहते उन्हें जातिवादी भेदभाव से छुटकारा नहीं मिल सकता तो उन्होंने भारतीय परंपरा से उपजे बौद्ध धर्म को अपनाने का निर्णय किया जिसके लिए भी उनको श्रद्धा से देखा जाना चाहिए।
आजादी के बाद एक ओर देश में फैली अव्यवस्था को संभालने का काम था, दूसरी ओर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना था। देश की सीमाओं की रक्षा करनी थी, गरीबी बदहाली में फंस चुके करोड़ों देशवासियों को रोजी-रोटी की व्यवस्था करनी थी। इस मामले में गांधी जी की सोच थी कि ग्रामीण लघु कुटीर उद्योगों के माध्यम से आगे बढ़ना। किन्तु नेहरू के लिए पश्चिमी औद्योगीकरण ही निरापद था। हालांकि गांधी जी के नाम पर कुछ करते हुए दिखने के लिए खादी कमीशन जैसे दिखावे के कार्य तो जारी रहे किन्तु बुनुयादी तौर पर ग्रामीण लघु उद्योग और कुटीर उद्योगों को अर्थव्यवस्था का आधार बनाने का कार्य अधर में ही लटका रह गया। अगर इस काम को ईमानदारी से करना होता तो कुटीर उद्योगों को नई परिभाषा दी जाती, जिसका अर्थ होता जहां जरूरी हो वहां कुटीर व लघु उद्योगों के उपकरणों में सुधार करते हुए उत्पादन को इतना बढ़ाने की व्यवस्था करना ताकि सारे देश की जरूरतें पूरी की जा सकें और जिन कामों में ऐसा संभव न हो वहां बड़े उद्योगों को स्थान दिया जाए. किन्तु उसके लिए वांछित इच्छा शक्ति का आभाव बना रहा।
धीरे-धीरे ग्रामीण उद्योग धंधे औद्योगिक उत्पादन से मुकाबला न कर पाने के चलते समाप्त होते गए और एक बड़ा उत्पादक वर्ग बेरोजगार हो गया। वादे तो यह किए गए थे कि औद्योगीकरण से नए रोजगार पैदा होंगे किन्तु वास्तविकता यह थी कि यदि 100 रोजगार छीने गए तो दस रोजगार ही नए पैदा हुए। जैसे-जैसे मशीनों से उत्पादन में स्वचालित मशीनों का प्रचलन बढ़ता गया, रोजगार के अवसर और भी कम होते गए। कृषि और ग्रामीण उद्योग धंधे भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे हैं किन्तु 60 फीसद लोगों को रोजगार देने वाली खेती भी धीरे धीरे घाटे का सौदा होती चली गई। इससे ग्रामीणों में शहरों की ओर पलायन बढ़ता गया। शहर पलायन का बोझ उठाने में सक्षम नहीं बचे हैं और गांव में खेत काम करने वालों का इंतजार कर रहे हैं। शहर गैस चैंबर बन गए हैं तो गांव उजड़े चमन। बहुत से गांव में बूढ़ों और बच्चों के अलावा कोई नजर नहीं आता। गांधी मार्ग अभी भी रास्ता दिखा सकता है। गांव के उद्योग-धंधों को जिंदा करके गांव खुशहाल हो सकते हैं और शहर साफ सुथरे। खेती में छोटे किसानों को बैलों से खेती के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है, इससे उनकी उत्पादन लागत घटेगी और जमीन के लिए जैविक खाद भी उपलब्ध होगी। इसके लिए बैल पालकों को सब्सिडी दी जाए और जैविक खेती को वैज्ञानिक आधार पर सशक्त किया जाना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में कौन-कौन से उद्योग कुटीर स्तर पर संभव हैं उनको नई तकनीकों से लैस करके गांव में खेती के साथ खाली समय के लिए उत्पादक विकल्प उपलब्ध करवाए जाने चाहिए।
हम चाहे कहीं से भी सीख कर नए नए उत्पादक तरीके देश में लाएं, किन्तु उनको अपनी भारतीय समझ से उपयोग करें। भारतीयकरण का महत्व इस लिए है क्योंकि कोई भी देश अपनी संस्कृति के माध्यम से ही अपनी जनता और विश्व के साथ संवाद करता है और अपने प्रभाव क्षेत्र का निर्माण करता है। इतिहास में भी जब भारत वर्ष ने अपने ज्ञान और संस्कृति के साथ विश्व से संवाद किया तो भारत की सभ्यता–संस्कृति दुनिया के देशों में बिना किसी सैनिक शक्ति के फैली, चाहे मौर्यकाल में आर्य भट्ट के सिद्धांत हों जिनमें विश्व को ज्योतिर्विज्ञान और गणित का ज्ञान दिया हो या बौद्ध दार्शनिक प्रतिभा का विस्तार हो या गुप्तकालीन विद्वान ब्रह्मगुप्त द्वारा शून्य की खोज के साथ गणित के अंक प्रदान किए हों, भारत ज्ञान के बल पर और मसालों और कुटीर उत्पादन के बल पर ही वैश्विक शक्ति के रूप में उभरा था। भारतीय संस्कृति व्यापार और मिशनरीयों द्वारा ही ज्यादातर दुनिया के हिस्सों में फैली। चाहे दक्षिण-पूर्व के देश हों या बगदाद के रास्ते अरब और यूरोप के देश हों सब भारतीय प्रतिभा के कायल और लाभार्थी रहे हैं।
नालंदा, तक्षशिला, विक्रम शिला जैसे अनेक विश्वविद्यालय भारतीय ज्ञान के भंडार थे जहां पूरे विश्व से विद्यार्थी शिक्षा के लिए आते थे। अभी तक भी भारतीय ज्ञान के अपार भंडार प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में छुपे हैं जिनमें धर्म शास्त्र के अलावा दार्शनिक ज्ञान और विज्ञान संबंधित जानकारियां भी भरी पड़ी हैं। अपने उस खजाने को तलाशने की जरूरत है किन्तु खेद है कि कुछ दुराग्रही लोग यह साबित करने में लगे रहते हैं कि संस्कृत मृत भाषा है जिसे पढ़ना बंद कर देना चाहिए। ज्ञान के खोजी कभी पक्षपाती और निहित स्वार्थी नहीं होते उन्हें जहां भी सच्चा ज्ञान मिलता है वे उसे ग्रहण कर लेते हैं। भारत का उदय उसी ज्ञान अर्जन के युग में हुआ। अरब प्रभुत्व का युग जब आया तो उन्होंने भी बगदाद के रास्ते आये भारतीय ज्ञान को, यूरोप के यूनानी ज्ञान को ग्रहण किया और दुनिया में फैल गए। फिर यूरोप के लोगों ने भी ज्ञान के खोजी होने का मार्ग अपनाया और दुनिया में फैल गए। ये अनुभव हमें याद रखने चाहिए और शुद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार पर पूरे विश्व से ज्ञान लेने के लिए तैयार होना होगा। लेकिन हमारे पैर हमेशा अपनी जमीन पर होने चाहिए।