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महफिल-ए-बारादरी में याद किए गए भगवान श्रीराम

भगवान श्रीराम एक शब्द भर नहीं है। प्रभु राम राष्ट्र के स्वाभिमान और गौरव के प्रतीक हैं। राम संस्कृति और जीवन के पथ प्रदर्शक भी हैं। अब अदबी जलसों में भी कवि और शायरों की रचनाओं के केंद्र बिंदु में श्रीराम होने लगे हैं। पिछले दिनों एनसीआर में महफिल-ए-बारादरी के आयोजन में अयोध्या नंदन की गूंज सुनाई पड़ी। अध्यक्षीय वक्तव्य में सुप्रसिद्ध शायर वसीम नादिर ने कहा कि आज अदब के सामने कई तरह के संकट हैं। अदबी समाज के लिए ऐसी महफिलों की दरकार है। यहां पढ़ी गई रचनाओं को सुनकर बहुत सुकून मिला। कवयित्री पूनम मीरा ने कहा कि बारादरी गंगा-जमुनी संस्कृति की मिसाल बन गई है। ऐसे मंच अदब को जिंदा रखते हैं। इस आयोजन की खास बात यह रही कि अधिकांश रचनाकारों ने गीत, कविता और दोहों के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को याद किया।

गाजियाबाद के नेहरू नगर स्थित सिल्वर लाइन प्रेस्टीज स्कूल में सजी इस अदब की महफिल में शुभ्रा पालीवाल के गीत की पंक्तियों ”चाहे ये सूरज कहीं छुप ही जाए, चाहे ये चन्दा गगन पे न आए, ले हाथ, हाथों में इकरार करना, दिल ये दिया है तो बस प्यार करना…” ने कार्यक्रम को शुरू में ही ऊंचाई प्रदान कर दी। शायर असलम राशिद ने फरमाया ”रफ्तार आंसुओं की रवानी से खींच लूं, मैं चाहता हूं दर्द कहानी से खींच लूं। बिछड़े थे जिसकी वजह से राम जी, मैं उस हिरण को कहानी से खींच लूं।” शायर वसीम नादिर ने अपने कलाम पर भरपूर दाद बटोरी। उन्होंने फरमाया ”कभी कपड़े बदलता है कभी लहजा बदलता है, मगर इन कोशिशों से क्या कहीं शजरा बदलता है। तुम्हारे बाद अब जिसका भी जी चाहे मुझे रख ले, जनाजा अपनी मर्जी से कहां कांधा बदलता है। मेरी आंखों की पहली और आखिरी हद है तेरा चेहरा, मैं वो पागल नहीं हूं रोज जो रस्ता बदलता है।”

शायरा पूनम मीरा ने भी बेहतरीन अशआर पेश किए। उन्होंने कहा ”उसकी आंखों के सराबों पर यकीं मत करना, मौतबर लाख हों अश्कों पर यकीं मत करना। जाविंदा शै कोई मिल जाए यकीं कर लेना, खाक हो जाते हैं जिस्मों पे यकीं मत करना। तुम जो बिछुड़ोगे तो फिर याद बहुत आओगे, ऐसी बेकार की बातों पर यकीं मत करना…।” बारादरी के अध्यक्ष गोविंद गुलशन के शेर ”तमाशबीन इधर के भी थे उधर के भी, बचा कोई न सका टूटते दिल को”। ”इस कदर तीरगी फैली है जमीं पर यारो, चांद जो छत से उतर आए तो काला हो जाए” भी सराहे गए। बारादरी जीवन पर्यन्त सृजन सम्मान से अलंकृत गीतकार जगदीश पंकज ने अपनी पंक्तियों ”अपने में काट-छांट करते, कुछ ऐसा लगने लगा कि मैं, औरों को करने में प्रसन्न, अस्तित्व स्वयं का भूल गया” पर प्रशंसा बटोरी। ईश्वर सिंह तेवतिया ने अपने चिर-परिचित अंदाज में शोक काल के उत्सव में परिवर्तित होने को कुछ इस तरह बयान किया ”शोक सभा के आयोजन में, सब कुछ है बस शोक नहीं है, शानो शौकत की नुमाइश में, रत्ती भर संकोच नहीं है, मातम है या फिर उत्सव है, पूछे कौन कौन बतलाए, मातम, मातम जैसा दीखे, इतना तक भी होश नहीं है…।” कार्यक्रम का संचालन ‘जया” दीपाली जैन ने किया। उन्होंने पढ़ा ”जो लब न खोलूं तो नैन बोलें, ज़ुबां की अंगड़ाई राज खोले, गजब हुई है ये रुख की रंगत, बयां-बयां सी मैं हो रही हूं।” कवि संजीव शर्मा ने घर के बुजुर्ग की परिजनों से असहमति से उत्पन्न स्थिति को रेखांकित किया।

इसके अलावा सुरेन्द्र सिंघल, योगेन्द्र दत्त शर्मा, सुभाष चंदर, डॉ. तारा गुप्ता, अनिमेष शर्मा आतिश, बीके वर्मा ‘शैदी’, विष्णु सक्सेना, सुरेन्द्र शर्मा, रजनीकांत शुक्ल, विपिन जैन, रवि यादव, इंद्रजीत सुकुमार, शोभना श्याम, वागीश शर्मा, मनीषा जोशी, डॉ. कविता विकास, सीमा सिकंदर, डॉ. रणवीर सिंह परमार, डॉ. नरेंद्र शर्मा, देवेंद्र देव, तूलिका सेठ, मनोज शाश्वत, डॉ. उपासना दीक्षित, मनीषा गुप्ता, मेहदी अब्बास जैदी, हिमांशु शुक्ला, संजीव नादान और संजय शुक्ल की रचनाएं भी सराही गईं। कार्यक्रम संयोजक आलोक यात्री ने आगंतुकों का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर डॉ. महकार सिंह, राधारमण, राष्ट्रवर्धन अरोड़ा, शकील अहमद सैफ, डॉ. सुमन गोयल, राजीव शर्मा, अंशु गोस्वामी, किशनलाल भारती, देवेंद्र गर्ग, विनोद सिंह राठौर, राकेश मेहरोत्रा, उत्कर्ष गर्ग और निरंजन शर्मा समेत बड़ी संख्या में श्रोता मौजूद रहे।

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