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एक ब्रह्म दूसरा कुछ भी नहीं

संसार अस्तित्व का अंग है और अंतःकरण से समझा जाता है। अंतःकरण भौतिक होता है। इसमें आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी पांचो भूत हैं। अंतःकरण निद्राकाल छोड़कर हमेशा चंचल रहता है। यह समस्त इंद्रियों के प्रपंचों का स्थान है और इंद्रियों की सीमा से भिन्न है। अंतःकरण ही सांसारिक विषयों के संपर्क में रहता है। यह वाह्य इंद्रियों से प्राप्त विषयों को ग्रहण करता है। उन्हें व्यवस्थित करता है। अंतःकरण में विषयों के संपर्क से आकृतियां बनती हैं। अंतःकरण की चार आकृतियां मानी जाती हैं-अनिश्चय, निश्चय, आत्मचेतन और स्मरण। जब अंतःकरण संशय की स्थिति में होता है तब इसे ’मन’ कहते हैं। जब यह निश्चय की स्थिति में होता है तब इसे बुद्धि कहते हैं। आत्मचेतन की स्थिति में इसे अहंकार कहते हैं। स्मरण की स्थिति में इसे चित्त कहते हैं।

जीव का साक्षी तत्व चैतन्य है। वह तटस्थदृष्टा है। इसमें दिखाई पड़ने वाली सक्रियता आभास है। सक्रियता अंतःकरण का स्वभाव है। साक्षी अंतःकरण की वृत्ति का निष्क्रिय दर्शक है। यह भौतिक तत्व नहीं है। जीव भौतिक और अभौतिक तत्वों का योग है। जीव ज्ञाता है और ज्ञेय भी है। अद्वैत वेदांत का ब्रह्म सिद्धांत रोचक है। रस्सी को सांप समझकर डरना तब तक भ्रम है जब तक वास्तविकता का पता नहीं चलता। शंकराचार्य ने कहा कि, ”भ्रम में भी कोई बाह्य अर्थ जरूर होता है। वह ज्ञान और ब्रह्म की विषय वस्तु को भिन्न मानता है। वास्तविक वस्तु का ज्ञान भी निर्णायक नहीं है। असली बात समय से जुड़ी हुई है।” शंकराचार्य के आलोक में देखें तो किसी वस्तु के सम्बंध में भ्रम और वास्तविक ज्ञान के बीच में समय का अंतर है। दोनों अनित्य हैं। अल्पकालिक हैं।

प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की जरूरत नहीं होती। अद्वैतवाद की प्रमाण मीमांसा व्यवहारिक जीवन के लिए है। आत्मा या ब्रह्म प्रमाणों का विषय नहीं है। शंकराचार्य ने कहा है, ”प्रत्यक्ष सहित सभी प्रमाण और सभी शास्त्र अविद्या में हैं। शास्त्र तथा अन्य प्रमाणों का उपयोग अविद्या का आवरण हटाने के लिए है। कोई भी साक्ष्य या प्रमाण भावनात्मक रूप में ब्रह्म का बोध नहीं करा सकते। सत्य पर अविद्या का आवरण है। वही आवरण हटता है। ब्रह्म अपने आप प्रकट हो जाता है।” शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान हमेशा ज्ञाता और उसके बाहर की ओर दिखाई पड़ता है। बाह्य अर्थ का निषेध करते ही ज्ञान असंभव हो जाता है। ब्रह्म के समय प्राप्त ज्ञान विशेष प्रकार का होता है और व्यक्तिगत होता है। लेकिन वास्तविक ज्ञान सार्वभौम होता है। ब्रह्म की संपूर्ण विषयवस्तु अनुभव प्राप्त होने तक रहती है। अस्थाई होती है। ज्ञान की विषयवस्तु स्थाई होती है।

शंकराचार्य व्यवहारिक वस्तुओं की सत्ता को स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रतीति का अर्थ अस्तित्ववान होना है। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म एकमात्र सत्य है। उसकी व्याख्या नहीं हो सकती। उसका कोई गुण नहीं। इसलिए कोई लक्षण नहीं। इसलिए उसे विचार का विषय नहीं बनाया जा सकता। विचार करने के लिए आवश्यक है कि विचारणीय विषयवस्तु का कोई गुण होना चाहिए। कोई लक्षण होना चाहिए। कठिनाई बड़ी है। ब्रह्म का विवेचन करें तो कैसे करें? इसलिए ब्रह्म का विवेचन निषेध पद्धति से ही संभव है। कुछ कुछ यही बात पश्चिमी दार्शनिक स्पिनओजा ने ईश्वर के सम्बंध में कही हैं, ”ईश्वर का वर्णन निषेधात्मक होता है। जैसे आत्मा के बारे में गीता में कहते हैं कि उसे आग जला नहीं सकती, शस्त्र उसे मार नहीं सकते, जल उसे भिगो नहीं सकता, हवाएं उसे सुखा नहीं सकती। वैसे ही भारतीय दर्शन का ब्रह्म है।”

ब्रह्म यहां निस्संदेह अनिर्वचनीय हैं, लेकिन वह अज्ञेय नहीं है। ब्रह्म का ज्ञानी ब्रह्म हो जाता है। उपनिषदों की घोषणा है ‘अहम ब्रह्मास्मि’। रामानुज और शंकराचार्य के अद्वैतवाद में थोड़ा अंतर है। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म पारमार्थिक दृष्टि से निर्गुण है। व्यवहारिक प्रयोजनों की दृष्टि से सगुण है। रामानुज के अनुसार ब्रह्म केवल सगुण है और सविशेष है। शंकराचार्य का ब्रह्म व्यक्तित्व रहित है और अमूर्त है, लेकिन रामानुज का ब्रह्म एक व्यक्तित्व है और मूर्त है। महत्वपूर्ण बात यह है कि शंकराचार्य का ब्रह्म और ईश्वर एक नहीं है। वह ब्रह्म को सत मानते हैं और ईश्वर को ब्रह्म का स्वरूप, लेकिन रामानुज ब्रह्म और ईश्वर को एक ही मानते हैं।

एक समय ब्रह्म और ईश्वर को लेकर काफी भेद की बातें चली थी। जीव को ईश्वर का अंश कहा जाता है। रामचरितमानस में कहते हैं, ”ईश्वर अंश जीव अविनाशी”, लेकिन शंकराचार्य के अनुसार जीव का अंशत्व वास्तविक नहीं है। यह अविद्या जनित प्रतीति है। भारतीय चिंतन में ब्रह्म की व्यापक चर्चा है। यहां ब्रह्म को परमार्थिक अभौतिक जानकर निरस्त नहीं किया गया। अनेक तत्ववेत्ता, अनेक विवेचक, अनेक मत। महाभारत के यक्ष प्रश्नों के उत्तर में युधिष्ठिर यही कहते हैं।

ऋग्वेद में एक देवता हैं अदिति। ऋषि प्रार्थना करते हैं, ”अदिति धरती हैं। अदिति आकाश हैं। अदिति अंतरिक्ष और परम व्योम हैं। अदिति हमारे माता-पिता हैं। अदिति हमारे पुत्र और पुत्री हैं। यहां सब कुछ अदिति ही हैं। जो अब तक हो चुका है और जो आगे होने वाला है, वह सब अदिति ही हैं।” यहां समय का अतिक्रमण हुआ है। अदिति के नाम को लेकर भ्रम न पैदा हो, संभवतः इसीलिए ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में कहते हैं, ”पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्”-जो अब तक हो चुका है, जो आगे होने वाला है, वह सब पुरुष ही है।

छान्दोग्य उपनिषद में नारद को सनत् कुमार ने बताया था, ”यह सब भूमा ही है। भूमा यहां संपूर्णता का पर्याय है।” ऋषि नारद से कहते हैं, ”जहां संपूर्णता है, वहीं सुख है। जहां अल्पता है, वहीं दुख है।” उत्तर वैदिक काल के ऋषियों के चित्त में बार बार गूंजने वाला ब्रह्म यही है। इसीलिए उपनिषदों की ही परंपरा में गीता में कहते हैं, ”ब्रह्म हमारे सामने हैं। ब्रह्म हमारे पीछे हैं। ब्रह्म हमारे दाएं हैं। ब्रह्म हमारे बाएं हैं। जो देखने वाला है, वह ब्रह्म है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह भी ब्रह्म है। यत्र तत्र सर्वत्र ब्रह्म की ही उपस्थिति है।”

ब्रह्मसूत्र में बादरायण ने भूमा के लिए कहा है, ”भूमा वही है। वही माने ब्रह्म।” फिर कहा है, ”पुरुष भी वही है।” आचार्य शंकर की यह बात ठीक है कि केवल ब्रह्म सत्य है और यहां जो भी दिखाई पड़ने वाला तत्व है, वह व्यर्थ है। इस व्यर्थ में सारे प्रत्यक्ष देवता, देवताओं से सम्बंधित ज्ञान भी सम्मिलित है। वेद और पुराण भी अविद्या हैं। ज्ञान महत्वपूर्ण है, लेकिन ज्ञान में भी हमेशा दो तत्व दिखाई पड़ते हैं। एक ज्ञाता और ज्ञेय। ज्ञान का इच्छुक व्यक्ति संसार देखता है। जब तक संसार सत्य है, तब तक ब्रह्म की अनुभूति नहीं होती। संसार गया, अविद्या हटी। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों समाप्त हो गए। जिज्ञासु की जिज्ञासा भी गई। तब केवल ब्रह्म रह जाता है। अद्वैत वेदांत ने सबको एक बताया। एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति-ब्रह्म एक, दूसरा कोई नहीं। अंग्रेजी में इसे ‘टोटैलिटी’ कह सकते हैं। वैज्ञानिक इसे ‘कासमोस’ कहते हैं और साधारण काव्य दृष्टि में ‘यूनिवर्स’।

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