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जा दिन नहाय बैठों राम लैके कनियाँ..

अयोध्या, 11 अप्रैल (हि.स.)। जा दिन नहाय बैठों राम लैके कनियाँ.. सिद्ध पीठ हनुमत निवास मंदिर के महंत मिथिलेश नंदनी शरण महाराज ने श्री राम लला सरकार के जन्म छठी पर शुक्रवार को ये पंक्तियां गुनगुनायी

हैं और कहा कि पाँच दिन हो गए.. चक्रवर्ती श्रीदशरथ जी महाराज के महल का उल्लास घटने का नाम नहीं लेता। हो भी कैसे.. पत्थर पर दूब जो उगी है। चौथे पन में जब गृहस्थी से उपराम होकर भगवद्भजन में मन लगाने का समय होता है तब रानियाँ पुत्रवती हुई हैं। देवता दाहिने हुए हैं, गुरु का आशीर्वाद फलित हुआ है। यज्ञ भगवान् ने अनुग्रह किया है और सूर्यवंश में मानवता का सूर्य चार रूपों में अवतरित हुआ है। एक पुत्र को तरसते आँगन में एक साथ चार-चार बालक अवतरित हुए हैं। तीनों रानियाँ ने पुत्र जनमाया है। चक्रवर्ती जी ने ऐसा उत्सव रचा है जैसा न कभी किसी ने देखा और न सुना। देवता मुदित अपना भोग-बलि-हविष्य ग्रहण करते हैं। गुरु वशिष्ठ का पग पखार कर सारे महल में छिड़काया जाता है। मुनि मण्डली सेवा-सम्मान से तृप्त होकर स्वस्तिवाचन करती है। पुरजन-परिजन का तो कहते ही नहीं बनता..ऐसे छके हैं कि जो पाते हैं उसे सहेजने के स्थान पर लुटा देते हैं। उदार शिरोमणि श्रीदशरथजी की दानशीलता का तो कहना ही क्या.. जाचक सकल अजाचक कीन्हें।

उन्होंने बताया कि श्रीरंगनाथ, सूर्य नारायण, गणपति तथा गौरी आदि पञ्च देवों की बारम्बार आराधना होती है। पर भगवान् शिव इस पूजा से तृप्त नहीं, वे तो ठहरे परम रसिक। सो, जबतक अपने प्राणधन प्रभु को गोद में लेकर लाड लड़ाने का सुख न मिले तब तक इस मन्त्र-माल्य की पूजा में उनका जी नहीं लगता। वे निकल गए हैं ज्योतिषी बनकर, कागभुशुण्डि जी को चेला बनाया और अयोध्या की गलियों में उमड़ते श्रीरामजन्म महोत्सव का सुख लूटते हैं। घूमते-फिरते अन्तःपुर में घुसने का भी उपाय बना लिया है और अपना मनोरथ सिद्ध किया है। भले यह चोरी है, पर इससे महादेव धन्य-धन्य हैं।

उन्होंने बताया कि असंख्य दृश्य हैं और अनगिनत प्रसंग। कुछ भी कहो, बहुत कुछ छूट जाता है। इस लोकोत्तर महोत्सव के लौकिक सन्दर्भ भी कम मनोहर नहीं हैं।

..पाँच दिन हो गए हैं। माँ कौशल्या विह्वल हैं। छठी विधान पूरा हो.. लोक- वेद का आचार सम्पन्न हो, फिर अपने छगन-मगन को नहलाकर, उबटन- अंजन से निखारकर, पीली झगुली पहनाकर, दिठौना लगाकर, देव- पितरों को प्रणाम कराकर कनियाँ (कोरा-गोद) में लेकर आँगन में बैठूँ तो मेरा जी जुड़ाये। अब मैं पुत्रहीना नहीं हूँ। यही तो स्त्रीत्व है.. मातृत्व ही स्त्रीत्व का गौरव है, इसका पुण्यफल है।

उन्होंने बताया कि इतनी आयु तक इन्द्र से बढ़कर वैभव में जीते हुए भी जैसे कहीं कुछ खोया हुआ था। अभाव की एक गहरी छाया सी लगी थी, अपने को चरितार्थ करने वाला मंगल-प्रसंग अब तक सुलभ नहीं हुआ था। पातिव्रत्य, पतिप्रेम, देव-पितरों का आशीष, परिजनों का स्नेह-सम्मान.. यूँ तो सब कुछ था। परन्तु, वह नहीं था जिसके लिए अग्नि-को साक्षी करके दक्षिण कोसल की कन्या उत्तर कोसल की राजवधू बनकर आई थी। आज वह प्रसंग आया है। कौशल्या की कोख का मान बढ़ाता हुआ उनको पूर्व दिशा गौरव देता हुआ मानवता का सूर्य उनके गर्भ से उदय हुआ है।

महाराज जी ने बताया कि आज माँ का हृदय उमड़ रहा है। मैं अपने राम को गोद में लेकर आँगन में बैठूँ… सोहर गाऊँ… अपनी प्रार्थना फलने का उत्सव मनाऊँ। पुत्रजन्म का उत्सव सारी अयोध्या मना रही है। देवता, सिद्ध, गन्धर्व-किन्नर सब इसमें सम्मिलित हैं, सब प्रमुदित हैं। पर माँ का चित्त तो कुछ और ही है ना। इनके गर्भ से जन्मे परमपिता कौशल्यानन्दन कहलायेंगे। वेद इनकी महिमा गायेंगे। आगे के युग के कवि तुलसी इन माँ को पूर्व दिशा कहकर इनकी वन्दना करेंगे। आगम इन कौशल्या को शुक्ति कहेंगे और रामरत्न को अपना सर्वस्व मान कर धारण करेंगे। अब धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक बालक राम कहलाना चाहेगा और प्रत्येक माता कौशल्या कहलाती हुई अपने भाग्य पर इतराया करेगी। प्रत्येक जन्म पर रामजन्म के गीत गाए जायेंगे।

माँ कौशल्या का उल्लास उमड़कर बहता है। वे अपनी सहचरी स्त्रियों को कहती हैं कि सखियो ! मेरे देवता प्रसन्न हुए हैं तुम सबकी सेवा सार्थक हुई है। मैं तुम सबको मान -उपहार से तृप्त कर दूँगी। अपने लाल को गोद में लेकर आँगन में मुझे आने दो। हरी-हरी सारी, जिसके किनारे सोने से मढ़े हुए हैं, जिसमें हीरे टांके हुए हैं और मणियों की झालर लगी है वह मैं तुमको दूँगी। भरोसा रखो , मैं एक-एक का मनोरथ पूरा करूँगी जैसे विधाता ने मेरा किया है। मैं किसी का आशीष, किसी का उपकार, किसी की सेवा भूलने वाली नहीं हूँ। किसी की उपेक्षा नहीं होगी। सबको रानियों जैसा वैभव दूँगी सबका बहुमान करूँगी।

पद रचते हुए श्री रतनहरि कहते हैं कि वात्सल्य से भरी हुई माता कौशल्या कहती हैं कि हीरा-माणिक्य से मंडित नथ, आभूषण अलंकार से सबका श्रृंगार करूँगी। जिस दिन मैं अपने लाल को गोद में लेकर आँगन में बैठूंगी।

“जा दिन नहाय बैठों राम लैके कनियाँ।

दैहौं मनि मानिक विभूषण विचित्र तोकों।

हरी-हरी साड़ी तामें जरद किनारी लागी बादल के झब्बे लागे तास की फुॅंदनियाँ॥ फूली न समैहों मुख मोरिहों न काहू पै ऐसो बनाऊँ जैसे राजन की रनियाँ॥ ‘रतनहरी’ नख सिख लौ गहनो

हीरा मनि मानिक सो जटित नथुनियाँ॥”

श्रीरामलला की छठी आई है.. अयोध्या मगन है। सन्त बधाई गाते हैं, न्यौछावर लुटाते हैं और इस उत्सव पर बलि- बलि जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी, स्वामी अग्रअलीजी, स्वामी जीवाराम जी, स्वामी युगलान्यशरण जी, श्रीकृपानिवास जी, राजा रघुराज सिंह जी, रतनहरि जी, सिया अली जी, किन – किन का नाम लें.. अयोध्या में गूँजते सोहर, बधाई, चैता, रेख़्ता, सोहिलो, सोहर, पदावली और राग- तान की विविध स्वर लहरियों पर आरूढ़ पूर्वाचार्य, पदावलीकार सर्वत्र छाए हुए हैं।

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