भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 31 दिसंबर 1929 एक निर्णायक दिन के रूप में दर्ज है। इसी दिन लाहौर में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज्य’ को भारत का अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया। यह निर्णय महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में लिया गया, जबकि इस अधिवेशन की अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे।
यह अधिवेशन इसलिए भी ऐतिहासिक था क्योंकि पहली बार कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार से किसी भी प्रकार की सीमित स्वायत्तता को अस्वीकार करते हुए साफ कहा कि अब भारत को केवल पूर्ण स्वतंत्रता ही स्वीकार्य होगी। इस निर्णय ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी और देशभर में आज़ादी की चेतना को और मजबूत किया।
लाहौर अधिवेशन में यह भी प्रस्ताव पारित किया गया कि 26 जनवरी 1930 को देशभर में ‘स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। यह कदम भारतीयों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट करने और राष्ट्रीय चेतना को मजबूत करने के लिए उठाया गया था।
महात्मा गांधी ने इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन की रूपरेखा तैयार की, जिसने आगे चलकर दांडी मार्च जैसे आंदोलनों को जन्म दिया। यह आंदोलन जनता को सीधे तौर पर ब्रिटिश कानूनों की अवहेलना के लिए प्रेरित करता था।
लाहौर अधिवेशन 1929 ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब किसी भी तरह के समझौते से नहीं, बल्कि संपूर्ण आज़ादी से ही संतुष्ट होगा। यही वह क्षण था, जब स्वतंत्रता संग्राम निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया।
आज जब हम 31 दिसंबर को याद करते हैं, तो यह दिन केवल साल का आखिरी दिन नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक संकल्प की स्मृति है, जिसने भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने की राह दिखाई।




