इस वर्ष चैत्र कृष्ण प्रतिपदा तिथि का आरंभ 14 मार्च को दिन में 12 बजकर 25 मिनट के बाद हो रहा है। इससे पहले तक फाल्गुन पूर्णिमा तिथि रहेगी। ऐसे में 14 मार्च को दिन में प्रतिपदा तिथि लग जाने से रंगोत्सव 14 मार्च को ही मनाया जा रहा है। जबकि होलिका दहन 13 मार्च को किया जा रहा है। होलिका दहन के दिन भद्रा का साया सुबह 10 बजकर 35 मिनट से शुरू हो जाएगा और इसका समापन रात 11 बजकर 26 मिनट तक होगा, इसी के बाद होलिका दहन किया जाएगा। इस दिन भद्रा का साया करीब 13 घंटे का रहेगा।
होलिका के लिए एक पेड़ की टहनी को भूमि में स्थापित किया जाता है और उसे चारों ओर से लकड़ियों, कंडों व उपलों से ढक दिया जाता है। शुभ मुहूर्त में इस संरचना में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है। इसमें छेद वाले गोबर के उपले, गेहूं की नई बालियां और उबटन अर्पित किए जाते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह अग्नि व्यक्ति को पूरे वर्ष स्वस्थ बनाए रखने में सहायक होती है और नकारात्मक शक्तियों को नष्ट कर देती है। होलिका दहन के बाद राख को घर लाकर तिलक लगाने की भी परंपरा है। इस दुनिया मे जो भी सुख- दुःख है वह हम सबके अपने-अपने कर्मों के कारण है। इस दुनियादारी के दुःखों के बीच ही हम थोड़े समय के लिए होली जैसे पर्वों के माध्यम से सुख खोजते है। क्षणिक सुख की यही घड़ी हमें होली पर मदहोश कर देती है और हम विनोद भाव से हंसी-ठिठोली कर होली का रसास्वादन प्राप्त करते हैं।
सत्य यही है कि सारा संसार आज दुःखो की होली खेल रहा है। सभी एक-दूसरे पर पांचों विकारों व उनके वंशों के बदरंगों की बौछार कर रहे हैं । किसी पर काम का रंग चढ़ा है तो किसी पर क्रोध का रंग, कोई लोभ में मदहोश है तो कोई मोह के रंग से रंगा हुआ है। स्वार्थ, इर्ष्या, द्वेष, घृणा, अमानवीयता, आपराधिक आकर्षण और बेवजह की आवश्यकता के सूक्ष्म बदरंगों से तो कोई बचा ही नहीं है। इन सबके मूल में है देह अभिमान का रंग, जिसके कारण आज हम सबकी आत्मा भी बदरंग हो गयी है। जबकि आत्मा का वास्तविक गुण रूपी रंग ज्ञान, शान्ति, प्रेम, सुख, पवित्रता, शक्ति व आनंद का है ,जो कहीं छिप-सा गया है और उसके ऊपर विकारों का कीचड़ आ जाने से सब उल्टा-पुल्टा हो गया है। हम सभी को विकारों के रंग के बजाए आत्मिक रंगों से रंगकर सारे विश्व को आत्ममय बनाना चाहिए। यह आत्मिक रंग एक परमात्मा के सत्संग द्वारा प्राप्त होता है। शिव परमात्मा ही नयी दुनिया के स्थापनार्थ कल्प कल्प संगमयुग में अवतरित होकर अपने आत्मा रूपी बच्चों को अपने संग के रंग से रंगकर आप समान पवित्र बना देते हैं। इसे ही सच्ची होली मनाना भी कहते हैं। होली मनाने के लिए पहले अपवित्रता व बुराईयों को भस्म करना होगा। विकार भाव भूलकर पतित से पावन बनकर हमें आपस में भाई-भाई की वृत्ति रखनी होगी तभी हम अविनाशी रंग का अनुभव कर सकेंगे।
परमपिता परमात्मा शिव ने हमें होली शब्द के तीन अर्थ बताये हैं- पहला होली अर्थात् बीती सो बीती, जो हो गया उसकी चिन्ता न करो तथा आगे के लिए जो भी कर्म करो, योगयुक्त होकर करो। दूसरा होली अर्थात् हो गई यानी मैं आत्मा अब ईश्वर अर्पण हो गई, अब जो भी कर्म करना है, वह ईश्वर की मत पर ही करना है। तीसरा होली अर्थात् पवित्रता। हमें जो भी कर्म करने हैं, वे किसी भी विकार के वश होकर नहीं वरन् पवित्र बुद्धि से करने हैं।
होली का त्योहार हिन्दू वर्ष के अंतिम मास फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। जिसे हम सृष्टि चक्र के रूप में भी समझ सकते हैं। सृष्टि चक्र के दो भाग हैं, ब्रह्मा का दिन और ब्रह्मा की रात्रि। ब्रह्मा का दिन है सतयुग-त्रेतायुग। उस समय सभी देवात्मायें ईश्वरीय रंग में रंगी होती हैं। लेकिन जब द्वापरयुग आता है और ब्रह्मा की रात्रि का प्रारंभ होता है तो मानवात्मायें विकारों से ग्रसित हो बदरंग होने लगती हैं। कलियुग के अंत तक तो इतनी बदरंग हो जाती हैं कि अपनी असली पहचान से पूरी तरह दूर चली जाती हैं, तब निराकार परमात्मा शिव धरती पर अवतरित होकर विकारों से बदरंग बनी आत्माओं को अपने संग का रंग लगाते हैं। उन्हें उजला बनाते हैं। उनमें ज्ञान, शान्ति, प्रेम, सुख, आनन्द, पवित्रता, शक्ति आदि गुण भरकर देवतुल्य बना देते हैं। चूँकि यह घटना कल्प के अंत में घटती है इसलिए यादगार रूप में होली का त्योहार भी हिन्दू वर्ष के अंतिम दिन मनाया जाता है। भगवान जब आते हैं तो स्वयं तो ज्ञान-गुणों का रंग आत्माओं पर लगाते हैं। जिन पर ज्ञान-गुणों का रंग लग जाता है, उन्हें अन्य आत्माओं पर भी यह रंग लगाने की प्रेरणा देते हैं।
परमात्मा शिव द्वारा ज्ञान के रंग में मनुष्यों को रंगने का कर्त्तव्य केवल एक या दो दिन नहीं, वर्षभर भी नहीं बल्कि कई वर्षों तक चलता है। ईश्वरीय कर्त्तव्य का यह संपूर्ण काल ही सच्ची होली है। लेकिन भक्तों द्वारा, कई वर्ष चलने वाले ईश्वरीय कर्त्तव्य की यादगार के रूप में केवल एक या दो दिन गुलाल आदि डालकर, लकड़ियाँ और उपले जलाकर होली मना ली जाती है। होली पर हिरण्यकश्यप, होलिका तथा प्रह्माद की कथा का भी आध्यात्मिक रहस्य है। जो लोग प्रह्लाद की तरह स्वयं को परमात्मा का पुत्र मानते हैं, उन्हीं से परमात्मा की प्रीत होती है और जो लोग हिरण्यकश्यप की तरह मिथ्या ज्ञान के अभिमानी हैं और स्वयं को भगवान मानते हैं, वे विनाश को प्राप्त होते हैं और होलिका की तरह जो आसुरियता का साथ देते हैं, वे भी विनाश को ही पाते हैं। कहते है कि हिरण्यकश्यप ने वर प्राप्त किया था कि “न मैं दिन में मरूँ, न रात में’, “न अंदर मरूँ, न बाहर’, “न किसी मनुष्य द्वारा मरूँ, न देवता द्वारा’ यह भी संगमयुग की ही बात है। यह संगमयुग अतुलनीय युग है। यह न ब्रह्मा का दिन है और न ब्रह्मा की रात्रि, यह दोनों का संगम है। यहाँ न मानव हैं, न देव वरन् तपस्वी ब्राह्मण हैं। इसी लिए तपस्या के बल पर मिथ्या ज्ञान के अभिमान और आसुरी वृत्तियों का अंत होली के रूप में होता है। लेकिन हम इस पवित्र होली को भी अपने हुड़दंग से विषैली बना देते हैं, जिससे बचकर रहने की जरूरत है। तो आइए खेलते हैं सुखों और हंसी -ठिठोली की होली, प्रेम की पिचकारी से, लगाते हैं सद्भावना का गुलाल बन्धुत्व की क्यारी से।