शिशिर के बाद फागुन और चैत आते के साथ वसंत ऋतु की दस्तक होती है। वसंत में प्रकृति अपने सौंदर्य का सारा संचित खजाना लुटाने के लिए व्यग्र रहती है। उसके अपने दूत बने पक्षी गाकर, वृक्ष और पादप नए पुष्प और पल्लव के साथ सज-धज कर बड़ी मुस्तैदी से इस व्यग्रता का डंका बजाते चलते हैं। फागुन की मदमाती बयार किसी के भी चित्त को उन्मथित किए बग़ैर नहीं छोड़ती| यह सब एक क्रम में कालचक्र की निश्चित गति में आयोजित होता है। प्रकृति नया परिधान धारण करती है। खेतों और बाग-बगीचों में रंगों से अद्भुत चित्रकारी चलती रहती है। पीली सरसों, तीसी के नीले फूल, आम की मंजरी, कोयल की मधुर कूक के बीच प्रकृति एक रमणीय सुंदर चित्र की तरह सज उठती है।
बिना किसी व्यतिक्रम के एक संगति में ये विविधता भरा बदलाव एक नया, अनोखा, आकर्षक और उत्साहवर्धक परिदृश्य रच देता है। नया रमणीय होता है इसलिए मानव चित्त को बड़ा प्रिय लगता है। नए अनुभव के लिए मन में उत्सुकता और उल्लास भरा होता है। अनजाने का आकर्षण अतिरिक्त उत्साह भरता है। वसंत में ऋतु-परिवर्तन का यह रूप सबको बदलने के लिए विवश करता है। इस आलोड़न के चलते लोग वह नहीं रह जाते जो होते हैं। चित्त के परिष्कार से व्यक्ति कुछ का कुछ बन जाता है। जुड़ने और आत्म-विस्तार से ही मनुष्य होने का अर्थ सिद्ध होता क्योंकि एक अकेला व्यक्ति अधूरा ही रहेगा। दूसरों के बीच और दूसरों से जड़ कर ही हमें अस्तित्व की प्रतीति हो पाती है। पारस्परिकता में ही जीवन की अर्थवत्ता समाई रहती है। यह पारस्परिकता भारतीय समाज में उत्सवधर्मिता के रूप में अभिव्यक्त होती है जो ऊर्जावान बनाती है।
जब कालिदास ने उत्सवप्रिया: मानवा: कह कर उत्सवधर्मिता को मनुष्यता का लक्षण घोषित किया था तो उनके ध्यान में होली जैसे मदनोत्सव ही रहे होंगे जिनमें लोग अपनी भिन्नता से ऊपर उठ कर साझे की अस्मिता रचते हैं। अहंकार की सीमाओं को तोड़ एक अतिक्रामी पहचान बानाने का यह उत्सव ज़िंदगी में नीरसता के विरुद्ध रस की ललकार है। ऊपरी भेदों को रंगों में डुबो कर सब को अपने जैसा बनाने और देखने का उद्योग आपसी सौहार्द की भावना को भी जगाता है। यह दुखद है कि आज अस्मिताओं की घोर लड़ाई चल रही है। बड़ी अस्मिता को अंगीकार करना निकटता, साझेदारी और सहयोग का मार्ग प्रशस्त करता है। आज की आधुनिक जीवन-शैली में हम अपने अनोखेपन और दूसरों से अलग पहचान पर बड़ा ज़ोर है। सबकी चाह है कि वस्त्र, भोजन और आभूषण सबकुछ ‘कस्टमाइज्ड’ और ‘डिज़ाइनर’ होना चाहिए। अलग लगने और दिखने की अदम्य चाहत से फ़िज़ूलखर्ची, ऊब और थकान भी बढ़ रही है। सबसे अलग होने के क्रम में फ़ैशन की दुनिया में नित्य नए प्रयोग हो रहे हैं जिसके चलते व्यर्थता का अहसास भी बढ़ता जा रहा है। परंतु सत्य यही है कि जन्म के समय मनुष्य के रूप में जैविक शारीरिक आकार प्रकार में व्यापक समानताएँ होती हैं। फिर समाज में रहते हुए हम अलग नाम, काम और धाम के बीच अपनी मौलिक समानताओं से दूरी बढ़ाते जाते हैं। पर सत्य तो यही है कि हम सिर्फ़ एक-दूसरे से भिन्न ही नहीं हैं हम सबमें व्यापक समानताएँ भी हैं। भिन्नताओं के बीच समानताएँ भी गौरतलब होती हैं क्योंकि उसी की बदौलत संवाद, सहयोग और सहकार संभव होता है। इसलिए समानताओं की पहचान खोजना और अनुभव करना भी बेहद ज़रूरी है।
मानव निर्मित संकुचित अस्मिताओं के चलते तनाव, अत्याचार हिंसा और युद्ध ही बढ़ता है। उत्तरदायित्व की जगह लोभ और स्वार्थ के वशीभूत हो कर अत्याचार और अनाचार जीवन को प्रदूषित कर रहे हैं। आज की बिडंबना यही है कि हम अपने अस्तित्व को सबसे अलग-थलग हो कर सिर्फ़ वैयक्तिकता और निजता को समृद्ध और पुष्ट करने की दिशा में गतिशील हो रहे हैं। इसके चलते अकेलेपन के साथ दूसरों के साथ टकराव भी अवश्यंभावी हो जाता है। बंधुत्व और उदारता के साथ सबको जीने का अवसर देकर ही हम सच्चे अर्थों में मनुष्य हो सकेंगे। छोटी अस्मिताओं से ऊपर उठ कर देश, समाज और मनुष्यता के स्तर पर अपनी साझी अस्मिता की वास्तविकता महसूस करते हुए ही मानव कल्याण संभव है। होली की पिछली रात को होलिका दहन में स्वार्थ का दहन कर ही हम होली के वास्तविक आनंद की पात्रता अर्जित करते हैं।