8 मार्च के आसपास आते ही महिला सशक्तिकरण, महिला अधिकारों को लेकर समाज का एक तबका जोर-शोर से बातें करनी शुरू कर देता है। नारेबाजी, प्रदर्शन, स्लोगन, पोस्टर, विज्ञापनों के माध्यम से सशक्त होती महिला के विषय में खूब लिखा जाता है। क्या यह केवल एक-दो दिन के लिए विचार है या अनवरत प्रक्रिया? महिलाओं के उत्थान, विकास व प्रगति के लिए दुनिया भर के संगठन महिलाओं का महिमा मंडन करने लगते हैं। बिंदी लगाती, साड़ी-सूट पहनती भारतीय महिला को पिछड़ा हुआ दिखाने में हमारा समाज, सोशल मीडिया, फिल्में इतनी तत्पर हैं और यह बताने में हिचकिचाती नहीं कि क्यों महिलाएं संस्कारी बन, घरेलू जिम्मेदारियां का निर्वहन करें ?
भारतीय समाज का सबसे सशक्त स्तंभ हमारा परिवार ही है। पढ़ी-लिखी महिला अगर घर से बाहर निकल कर काम नहीं कर रही हैं तो उसे भी “ग्रेट सोशल वेस्ट’ तक कहने में हम हिचकिचाते नहीं हैं। वहीं, इस्लामिक देशों की बात करें तो तीन तलाक के दंश को झेलती, बुर्का, हिजाब पहनी घरेलू महिलाओं को भी वेस्टर्न मीडिया कभी दबा, कुचला, असहाय नहीं दिखाता तथा उनके पक्ष में संवाद करने व उनके विकास के लिए कटिबद्ध होता प्रतीत नहीं होता है। विगत वर्षों में जब ईरान में महिलाओं ने बुर्के व हिजाब के विरोध में प्रदर्शन किया तो किसी भी विकसित देश, वामपंथी प्रोग्रेसिव लोगों की ओर से उन महिलाओं के पक्ष में कोई लामबंदी नहीं हुई, ना तो कोई लेख लिखे गए, ना टीवी पर चर्चा हुई और अंततः उन प्रदर्शनकारी महिलाओं को जेल में डाल दिया गया या मार दिया गया। अगर यह स्थिति भारत में पर्दा प्रथा के विरुद्ध होती तो चौतरफा हमले व लामबंदी शुरू हो जाती। आमिर खान प्रोडक्शन में महाराज, लापता लेडिज फिल्में बनीं। हम कह सकते हैं कि देवदासी प्रथा और पर्दा प्रथा के क्या नुकसान हो सकते हैं- विषय पर कार्य किया गया और हिंदू समाज ने इसका स्वागत भी किया लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि क्या मुस्लिम बहनों का दर्द, डर और पीड़ा उन्हें दिखाई नहीं देती है? क्यों अभी तक तीन तलाक, बुर्का, हिजाब और एक पत्नी विवाह को आधार बनाकर मुस्लिम बहनों के अधिकारों व हक को भी आवाज़ देने की आवश्यकता आमिर खान को महसूस नहीं हुई।
भारतीय समाज में महिलाएं वैदिक काल से ही प्रतिष्ठित व सम्मानित रहीं हैं। ऋषि पत्नी, पुत्री, राजकुमारियों को तो अस्त्र-शस्त्र, शास्त्र में पारंगत किया जाता ही था। साधारण परिवार में जन्मी बच्चियों को भी समान अधिकार व शिक्षा का अधिकार था। सीता, विशंभरा, शकुंतला, गार्गी, मैत्रेयी, अनुसुइया, अपाला जैसी अनेक विदुषी महिलाएं हिंदुस्तान में हुईं हैं जो शस्त्र और शास्त्र में पारंगत थीं। मध्यकाल में जब आक्रांताओं ने हिंदुस्तान पर आक्रमण किया और हमारी बहू-बेटियों को बुरी नज़र से देखकर उनका अपहरण कर शीलभंग करना प्रारंभ किया तब इन आक्रांताओं से बचने के लिए पर्दा प्रथा प्रारंभ हुई और जैसे ही देश आजाद हुआ हम इस प्रथा से भी मुक्त हुए।
जहाँ केंद्रीय सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक और हलाला जैसी कुप्रथाओं से मुक्ति दिलाई है। उत्तराखंड की सरकार ने समान नागरिक संहिता ही लागू कर दी है जो सबसे क्रांतिकारी कदम है। अन्य कई राज्य सरकारें इस विषय पर काम करने की मंशा दिखा चुकी हैं। विकसित देशों में स्वच्छंदता, परिवारों के विघटन व तलाक के केस लगातार बढ़ रहे हैं। वहाँ का समाज पूरी तरह दिशाहीन हो चुका है।
मार्क्सवाद के नए रूप “वोक” ने शिक्षा संथाओं से लेकर घरों तक में व्यक्ति को केवल अधिकारवादी, व्यक्तिवादी और स्वच्छंदतावादी बना दिया है तथा सरकारों और हर तरह की सामजिक संस्थाओं से असंतुष्ट बना कर छोड़ दिया है। पूरा जोर अधिकारों और अपनी मर्जी चलाने पर है और कर्तव्यों, मर्यादाओं और परम्पराओं का नाम लेना भी पाप बना दिया गया है । गलत को गलत कहना “जजमेंटल” होना कहा जाता है। माता-पिता भी अब बच्चों का मार्गदर्शन नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करने से “जजमेंटल” हो जाएंगे। फिल्म, सीरियल, ओटीटी , अखबार, शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से यह सब भारत में भी प्रवेश कर रहा है जिसके शब्दजाल को समझ कर उससे बचना आवश्यक है। विवाह की बजाय “लिव इन”, बच्चों की जिम्मेदारी से बचना, अंग प्रदर्शन को नग्नता की बजाय “बोल्ड” और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहना, विवाहपूर्व-विवाहेत्तर और अप्राकृतिक यौन संबंधों को स्वीकार्य और अधिकाधिक प्रचलित बनाना महिलाओं को सशक्त नहीं बल्कि स्वच्छंद, अकेला और मर्यादाहीन बनाता जा रहा है। यह अपसंस्कृति शिक्षा संस्थाओं, परिवार और व्यक्ति को खोखला कर रही है। विवाह और पारिवारिक संबंधों के स्थायित्व और उनसे मिलने वाली सुरक्षा की भावना को नष्ट कर रही है। स्त्री आर्थिक रूप से सशक्त और अधिकार संपन्न होने पर भी यदि सामाजिक और मानसिक रूप से अकेली हो जाए तो ऐसा सशक्तिकरण क्या काम आएगा? अपने धर्म, सभ्यता-संस्कृति, संस्कार की शिक्षा बंद हो जाने के कारण इस दिशाभ्रम को रोकना असंभव लगने लगा है।
महिला सशक्तिकरण के विषय में बात करने पर दिल्ली की अध्यापिका इंद्राणी भास्कर ने कहा कि मेरे लिए महिला सशक्तिकरण का अर्थ है कि मेरा पूरा परिवार मेरा सम्मान करे, पति बराबरी का हक दे। आजकल महिलाएं घर और बाहर दोनों संभालती हैं, उनकी कमियों को नजरअंदाज किया जाए और उन्हें डोरमैट की तरह से प्रयोग में ना लाया जाए, ना ही घर में और ना ही ऑफिस में। परिवार में लड़की होना बोझ ना समझा जाए। समाज इस विचार से बाहर निकले। लड़की को भी संस्कार व शिक्षा दी जाए। औरतों के साथ अगर शोषण हो तो समाज एकजुट होकर खड़ा हो ताकि महिलाओं को ही एहसास रहे कि समाज उसके साथ है।
वहीं, बिहार की राजधानी पटना से राजीव सिन्हा ने कहा कि देश की आधी आबादी महिला है। बिना उनकी बराबरी और आजादी, सोशल रिस्पेक्ट के देश आगे नहीं बढ़ सकता। अब महिलाओं पर घर परिवार और ऑफिस सभी की जिम्मेदारी है इसलिए परिवार उसके प्रति संवेदनशील भी हो और उसके साथ भी खड़ा हो। महिलाओं के लिए भी आवश्यक है कि वे अपनी प्राथमिकता को समझते हुए अपने कैरियर का निर्णय लें।
मिशनरी स्कूल में पढ़ाने वाली बीवी कुरियन से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि कामकाजी महिलाओं की जिम्मेदारी अधिक है। महिलाओं का लाइफस्टाइल बेहतर हुआ है लेकिन ऐसी महिलाएं जो घर से बाहर कार्य कर रही हैं उनमें अपराधबोध भी रहता है कि उन्हें छोटे बच्चों को घर पर छोड़कर आना पड़ता है। अगर वे बच्चों के पालन-पोषण के लिए नौकरी छोड़ती हैं तो बाद में इस बात का कोई भरोसा नहीं है कि उन्हें नौकरी मिलेगी। इसलिए महिलाएं अपने कैरियर को लेकर कहीं ना कहीं अधिक सचेत हुई हैं।
“गरुड़ पक्षी बलशाली है फिर भी उड़ान भरने के लिए उसे दोनों पंखों की आवश्यकता होती है। अगर एक भी पंख कमजोर है तो वह ऊंची उड़ान नहीं भर सकता
वैसे ही इस राष्ट्र रूपी गरुड़ को ऊंची उड़ान भरनी है तो उसके दोनों पंख स्त्री और पुरुष समान रूप से शक्तिशाली होने चाहिए।’ यह बात आज के संदर्भ में अक्षरशः सत्य है। महिला सशक्तिकरण की धारणा को विवेकानंद जी के इस कथन से बल मिलता है।
भारतीय संस्कृति जहां परिवार को जोड़कर रखने की बात करती है वहीं महिलाओं पर यह जिम्मेदारी अधिक आ जाती है कि वे परिवार और बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी का वहन करें और इसी कारण से शायद वर्तमान समाज में लड़कियां विवाह करने व बच्चों की जिम्मेदारी से बचना चाहती हैं। घरेलू जिम्मेदारी को वहन करती महिला आज की लड़कियों का आदर्श नहीं है। यह सतत् विकास की प्रक्रिया है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति ने यज्ञ में आहुति देनी है। ऐसे कई सामाजिक संगठन इस दिशा में निरंतर प्रयास कर रहे हैं। ऐसा ही एक संगठन राष्ट्र सेविका समिति है जो विश्व का सबसे बड़ा महिला संगठन है। यहां महिलाओं के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक विकास पर बल दिया जाता है। जहां शारीरिक रूप से सबल बनाने के लिए दंड, नियुद्ध की शिक्षा दी जाती है तो बौद्धिक विकास के लिए देश के ज्वलंत विषयों पर चर्चा के माध्यम से बौद्धिक योद्धा तैयार किए जाते हैं। महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति सजग करवाते हुए उन्हें कर्तव्यों के वहन के लिए प्रेरित किया जाता है। मात्र बदन उघाड़ू वस्त्र पहनकर, शराब मदिरा, सिगरेट का प्रयोग कर कोई महिला सशक्त नहीं हो सकती। ऐसे में ओटीटी, फिल्में, विज्ञापन कंपनियां महिलाओं को इस प्रकार चित्रित करना बंद करें। महिलाओं की गरिमापूर्ण प्रस्तुति ही महिला सशक्तिकरण की ओर उठता एक कदम होगा।