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त्रेता और द्वापर युग से चिरंजीवी हैं भगवान परशुराम

भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। वे भगवान श्रीराम के समय भी थे और भगवान श्रीकृष्ण के समय भी मौजूद रहे, आज भी उन्हें साक्षात जीवित देव माना जाता है। भगवान परशुराम ने ही श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था। किदवदन्ति है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तपस्या स्थली रही है और उसी पर्वत को कल्पांत तक तपस्या के लिए उन्होंने चुना। कहते है, एक बार भगवान गणेश ने परशुराम को शिव दर्शन करने से रोक दिया था, जिससे रुष्ट होकर परशुराम ने उन पर अपने फरसे से प्रहार किया, जिससे उनका एक दांत टूट हो गया और तभी से वे एकदंत हो गए। त्रेतायुग में सीता स्वयंवर में शिव धनुष टूटने पर वे पहले बहुत नाराज हुए और फिर क्रोध शांत होने पर श्रीराम का सम्मान भी किया। द्वापर युग में उन्होंने असत्य वचन के लिए दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत होने का श्राप दिया था, साथ ही भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी।

भगवान परशुराम को विष्णु का छठा ‘अवतार’ माना जाता है। जबकि श्रीराम सातवें अवतार थे। भगवान परशुराम का जन्म 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के प्रथम प्रहर में हुआ था। इनका जन्म सतयुग और त्रेता का संधिकाल भी माना जाता है। भगवान परशुराम का जन्म 6 उच्च ग्रहों के योग के समय में हुआ। जन्म तिथि अक्षय तृतीया होने कारण इसी दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है। साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय द्वारा किये गए एक शोध के तहत परशुराम का जन्म वर्तमान बलिया के खैराडीह में बताया गया है। उत्तर प्रदेश के शासकीय बलिया गजेटियर में परशुराम का चित्र सहित संपूर्ण विवरण उपलब्ध होना बताया गया है।

एक किंवदंती में मध्य प्रदेश के इंदौर के पास स्थित महू से कुछ ही दूरी पर स्थित जानापाव की पहाड़ी पर भगवान परशुराम का जन्म होना बताया गया है। यहां पर परशुराम के पिता ऋर्षि जमदग्नि का आश्रम है। कहते हैं कि प्राचीन काल में इंदौर के पास ही मुंडी गांव स्थित रेणुका पर्वत पर माता रेणुका रहती थीं।

एक अन्य मान्यता में छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में घने जंगलों के बीच कलचा गांव में एक शतमहला है। जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका इसी महल में रहती थीं और भगवान परशुराम को उन्होंने यहीं जन्म दिया था। शाहजहांपुर के जलालाबाद में जमदग्नि आश्रम से करीब दो किलोमीटर पूर्व दिशा में हजारों साल पुराने मन्दिर के अवशेष मिलते हैं जिसे भगवान परशुराम की जन्मस्थली कहा जाता है। महर्षि ऋचीक ने महर्षि अगत्स्य के अनुरोध पर जमदग्नि को महर्षि अगत्स्य के साथ दक्षिण में कोंकण प्रदेश में धर्म प्रचार का कार्य करने लगे। कोंकण प्रदेश का राजा जमदग्नि की विद्वता पर इतना मोहित हुआ कि उसने अपनी पुत्री रेणुका का विवाह इनसे कर दिया। इन्ही रेणुका के पांचवें गर्भ से भगवान परशुराम का जन्म हुआ। जमदग्नि ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद धर्म प्रचार का कार्य बन्द कर दिया और राजा गाधि की स्वीकृति लेकर इन्होंने अपना जमदग्नि आश्रम स्थापित किया और अपनी पत्नी रेणुका के साथ वहीं रहने लगे। राजा गाधि ने वर्तमान जलालाबाद के निकट की भूमि जमदग्नि के आश्रम के लिए चुनी थी। जमदग्नि ने आश्रम के निकट ही रेणुका के लिए कुटी बनवाई थी आज उस कुटी के स्थान पर एक अति प्राचीन मन्दिर बना हुआ है जो आज ‘ढकियाइन देवी’ के नाम से सुप्रसिद्ध है।

भगवान परशुराम के लिए जहां अपने पिता की आज्ञा सर्वोपरि रही वहीं वे अपने क्रोध व शिव भक्ति के लिए भी जाने जाते हैं। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने अपने पराक्रम से नदियों तक की दिशा मोड़ दी थी। वास्तव में भगवान परशुराम ऐसे देव हैं जिन्हें चिरंजीवी होने का गौरव प्राप्त है।

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