आज हमारी अर्थव्यवस्था भले विश्व की दस प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो व जीडीपी रैंकिंग में इस साल हम विश्व की तीसरी प्रमुख अर्थव्यवस्था बनने की तैयारी में हों पर अर्थव्यवस्था के तेजी से विकास के लिए रेटपेयर्स की भागीदारी बढ़ाने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है। फ्रीबीज के जमाने में केन्द्रीय वित्त सचिव अजय सेठ द्वारा एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए देश की आर्थिक वृद्धि के लिए रेटपेयर्स को प्रोत्साहित करना जरुरी बताया गया है।
दरअसल, एक ओर राजनीतिक दलों द्वारा लोक लुभावन फ्रीबीज सुविधाओं की घोषणाएं-दर-घोषणाएं की जा रही हैं तो दूसरी ओर देश को 2025 में जीडीपी रैंकिंग के अनुसार दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की चुनौती है। अर्थव्यवस्था का सीधा-सीधा गणित यह है कि एक तो करदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से कर के रुप में सीधे-सीधे आय सरकार को प्राप्त होती है तो दूसरी ओर सरकार अपनी विकास योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए उधारी से काम चलाने वाली स्थिति होती है जिसे हम बजट प्रस्तावों में उधारी के रुप में देखते हैं। तीसरा प्रमुख स्रोत रेटपेयर्स होते हैं, देश का सेविंग पूल इन्हीं से बनता है।
जहां तक आयकर का प्रश्न है तो आधार और पैनकार्ड के चलते अब आयकर के दायरे से कोई बच नहीं सकता। खासतौर से नौकरीपेशा या निश्चित पगार पाने वालों का तो आयकर सीधे-सीधे और बिना किसी छीजत के सरकार को प्राप्त हो जाता है। इसमें किसी तरह की चोरी की संभावना न के बराबर है। लगभग यही स्थिति जीएसटी के बाद देखने को मिल रही है और साल दर साल जीएसटी संग्रह में बढ़ोतरी भी हो रही है।
दरअसल, जब स्थानीय स्वशासन की परिकल्पना की गई थी तो उसके साथ यह भी था एक समय आते-आते यह संस्थाएं अपनी गतिविधियों के संचालन के लिए सरकार पर निर्भर ना रहकर आत्मनिर्भर हो जाएंगी और इन संस्थाओं को सरकार के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा। पर एक ओर यह सपना ही बनकर रह गया दूसरी ओर राजनीतिक दलों ने फ्रीबीज का ऐसा चलन चलाया कि रेटपेयर्स की भूमिका कम से कम होती जा रही है।
रेटपेयर्स का प्रयोग सबसे पहले 1845 मेें माना जाता है। रेटपेयर्स की भूमिका को हम इससे अच्छी तरह समझ सकते हैं कि न्यूजीलैण्ड सहित अनेक देशों में तो रेटपेयर्स अपने हितों की रक्षा के लिए एसोसिएशन बनाकर आगे आ रहे हैं। हमारे देश में हालात इससे विपरीत है। हमारे यहां पिछले कुछ सालों में रेटपेयर्स की सहभागिता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। केन्द्रीय वित सचिव अजय सेठ के अनुसार संभवतः यही चिंता का कारण बन रहा है।
रेटपेयर्स से सीधा-सीधा अर्थ सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र में जो बुनियादी सेवाएं उपलब्ध कराई जाती है उससे विकास या बेहतर सेवाओं के लिए राशि प्राप्त की जा सके। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सार्वजनिक परिवहन या इसी तरह की सेवाएं इसके दायरे में आती हैं। चुनावी वादों के चलते सरकार द्वारा बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि को कम-ज्यादा पर फ्रीबीज के दायरे में प्रमुखता से ला रही हैं। पेंशन योजनाएं और फ्री राशन, सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं, सीनियर सिटीजन व अन्य को राहत या अन्य दूसरी इसी तरह के निर्णय रेटपेयर्स की अर्थव्यवस्था में भागीदारी को सीमित करते हैं।
लोकतंत्र में समान अवसर और आर्थिक रुप से पिछ़ड़े लोगों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अनुदानित योजनाओं का संचालन संवेदनशील और लोकहितकारी सरकार के लिए आवश्यक है। पर इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि सार्वजनिक सुविधाओं के लिए सरकार द्वारा जो राशि कर या अन्य रुप में प्राप्त की जाती है वह नहीं मिले और उसका भार भी ईमानदार कर दाताओं पर पड़े तो यह किसी भी हालत में सही नहीं है। सरकार को सक्षम और कम सक्षम में अंतर करके चलना होगा। केन्द्रीय वित सचिव की मंशा कहीं ना कहीं यही होगी कि फ्रीबीज के कारण जो रेटपेयर्स की अर्थव्यवस्था में भागीदारी दिन-प्रतिदिन कम हो रही है उसपर ध्यान देना आवश्यक है।
इसमें दो राय नहीं कि समाज की मुख्यधारा से वंचित लोगों को सहायता दी जाए पर यह नहीं होना चाहिए कि मुख्यधारा से वंचित के नाम पर आर्थिक दृष्टि से सक्षम लोगों या परिवारों को भी यह सुविधाएं दी जाए। इससे होता यह है कि जोे आम करदाता है वह तो अपने आपको ठगा महसूस करता ही है, कहीं ना कहीं समाज में गैप भी बढ़ता है। आर्थिक विकास में जो जनभागीदारी होनी चाहिए वह भी बाधित होती है। ऐसे में फ्रीबीज की राजनीति के बीच रेटपेयर्स की भागदारी को भी बढ़ाना होगा जिससे अर्थव्यवस्था का मल्टिपल विकास संभव हो सके। आज के लाभार्थियों को भी अर्थव्यवस्था के व्यापक हित में समझना होगा।




