देश में इस समय परिसीमन के मुद्दे पर सियासत में भूचाल आया हुआ है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने पांच मार्च को इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक आहूत की है। उन्हें आशंका है कि परिसीमन के बाद तमिलनाडु की संसदीय सीटों की संख्या कम हो सकती है। स्टालिन का समर्थन दक्षिणी राज्यों के अन्य मुख्यमंत्रियों ने भी किया है। अभी यह तय नहीं है कि परिसीमन की प्रक्रिया कब शुरू होगी। यह माना जा रहा है कि 2025-26 में होने वाली जनगणना के बाद परिसीमन हो सकता है। इस प्रक्रिया के 2028 तक पूरी होने की संभावना है। परिसीमन एक संवैधानिक प्रक्रिया है, इसलिए स्टालिन का हल्ला मचाना कहीं से भी ठीक नहीं लग रहा। पहले भी देश में परिसीमन हुए हैं।
वैसे भी उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अधिक आबादी वाले राज्यों के लिए अधिक सीटें जोड़ते हुए वर्तमान सीट अनुपात को बनाए रखना महत्वपूर्ण है। राज्यसभा के समान एक मॉडल प्रगतिशील राज्यों को नुकसान पहुंचाए बिना एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। सीटों का पुनर्वितरण करते समय, हमें आर्थिक योगदान, विकास मीट्रिक और शासन प्रभावशीलता को ध्यान में रखना चाहिए। सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को प्राप्त करने वाले राज्यों को विशेष राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है, जो अच्छे शासन को पुरस्कृत करता है। क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने और तेजी से बढ़ते राज्यों के प्रभुत्व को रोकने के लिए कानूनी उपाय किए जाने चाहिए। संसद के भीतर एक क्षेत्रीय परिषद की स्थापना से कम प्रतिनिधित्व वाले राज्यों के हितों की वकालत करने में मदद मिल सकती है।
माना जा रहा है कि 2031 की जनगणना के बाद एक क्रमिक दृष्टिकोण हितधारकों के साथ चर्चा और एक सहज संक्रमण की अनुमति देगा। किसी भी परिसीमन से पहले, एक राष्ट्रीय आयोग को संभावित प्रभावों का आकलन करना चाहिए और आवश्यक सुरक्षा उपाय सुझाने चाहिए। राज्य सरकारों के लिए स्थापित चैनलों के माध्यम से परिसीमन वार्ता में सक्रिय रूप से भाग लेना महत्वपूर्ण है। सहकारी संघवाद को प्रोत्साहित करने के लिए किसी भी सीट पुनर्वितरण को अंतिम रूप देने से पहले अंतर-राज्य परिषद के साथ अनिवार्य परामर्श होना चाहिए। एक सुनियोजित परिसीमन प्रक्रिया जनसांख्यिकीय वास्तविकताओं को संघवाद की अखंडता से जोड़ सकती है। क्षेत्रीय असमानताओं से बचने के लिए दोहरे प्रतिनिधित्व मॉडल भी अपनाए जा सकते हैं।
लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ने से नागरिकों को बेहतर प्रतिनिधित्व मिलेगा। निर्वाचन क्षेत्रों का आकार छोटा होगा तो शासन में सुधार होगा। बिहार का प्रतिनिधित्व अभी भी 1971 के आंकड़ों पर आधारित है। बावजूद इसके कि इसकी जनसंख्या में काफी वृद्धि हुई है। नवीनतम जनगणना आंकड़ों के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों को संशोधित करने से लोकतांत्रिक समानता को बढ़ावा मिलेगा और चुनावी प्रतिनिधित्व में जनसंख्या असमानताओं को रोका जा सकेगा। झारखंड, जिसे 2000 में बिहार से अलग कर दिया गया था, अभी भी पुरानी निर्वाचन संरचना का पालन कर रहा है, जो राजनीतिक स्पष्टता को कम करता है। अधिक आबादी वाले राज्यों से सांसदों की संख्या में वृद्धि विकास संबंधी असमानताओं की ओर ध्यान आकर्षित करेगी, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि नीतिगत हस्तक्षेप अविकसित क्षेत्रों की ओर लक्षित हों। मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों के लिए अधिक संख्या में सांसदों से बेहतर बुनियादी ढांचा नियोजन और निवेश का बेहतर आवंटन हो सकता है।
प्रगतिशील राज्यों की घटती भूमिका संघवाद और निष्पक्ष राजनीतिक प्रतिनिधित्व को नुकसान पहुंचाती है। प्रभावी शासन वाले दक्षिणी राज्यों का प्रभाव कम हो सकता है, जिससे ठोस नीति प्रबंधन के लिए प्रेरणा कम हो सकती है। केरल की उच्च साक्षरता दर से प्रेरित विकास पर्याप्त सीट आवंटन में तब्दील नहीं हो सकता है, जिससे अन्य राज्य समान रणनीति अपनाने से हतोत्साहित हो सकते हैं। अधिक आबादी वाले राज्यों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व केंद्रीकृत नीति निर्माण की ओर रुझान को जन्म दे सकता है, जो क्षेत्रीय शासन स्वायत्तता को प्रतिबंधित कर सकता है। कृषि राज्यों के पक्ष में विधायी समायोजन औद्योगिक क्षेत्रों की जरूरतों की उपेक्षा कर सकते हैं, जिससे आर्थिक संतुलन बाधित हो सकता है।
तमिलनाडु और महाराष्ट्र कम प्रतिनिधित्व के कारण अपने राजकोषीय हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष कर सकते हैं। केवल जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व में वृद्धि उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजन को बढ़ा सकती है।इससे क्षेत्रीय तनाव पैदा हो सकता है। तमिलनाडु में राजनीतिक दल परिसीमन के खिलाफ हैं।
आम आदमी जानना चाहता है कि परिसीमन क्या होता है? इसमें लोकसभा सीटों की संख्या कैसे घट और बढ़ जाती है? तो पहली बात यह कि देश में हर जनगणना के बाद परिसीमन होता है। यह एक संवैधानिक प्रक्रिया है।वैसे ऐसा जरूरी भी नहीं है कि हर जनगणना के बाद परिसीमन हो। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके तहत लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों का निर्धारण किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य जनसंख्या में बदलाव के अनुसार सभी नागरिकों के समान प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना होता है। देश की आजादी के बाद हर 10 साल में जनगणना कराई जाती रही है। हालांकि, 2011 के बाद जनगणना नहीं हुई है।
संविधान के 81(2) में जिक्र है कि किसी राज्य की जनसंख्या और उस राज्य के संसद सदस्यों की संख्या के बीच का अनुपात सभी राज्यों के लिए समान होना चाहिए। इस हिसाब से अधिक जनसंख्या वाले राज्यों में सांसदों की संख्या ज्यादा है और कम जनसंख्या वाले राज्यों में कम सांसद हैं। संभवतः दक्षिणी राज्यों को इसी बात का डर है। कई दक्षिणी राज्यों में जनसंख्या तेजी से घटी है। ऐसे में अगर परिसीमन होता है तो इन राज्यों की लोकसभा सीटों में भी आबादी के अनुसार बदलाव हो सकता है। देश में अब तक चार बार 1952, 1963, 1973 और 2022 में परिसीमन आयोग का गठन किया जा चुका है। पहली बार 1952 में परिसीमन प्रक्रिया के समय देश में 489 लोकसभा सीटें थीं। इसके बाद 1963 में परिसीमन हुआ तो लोकसभा सीटों की संख्या 522 हो गई। 1973 में परिसीमन के तहत लोकसभा सीटों की संख्या 543 हो गई। 1967 में इंदिरा गांधी ने 42वें संविधान संशोधन के जरिए परिसीमन पर 25 साल के लिए रोक लगा दी थी। इसके बाद 2001 में जनगणना हुई और 2002 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया। मगर तत्कालीन केंद्र सरकार ने 84वें संविधान संशोधन के तहत इस पर एक बार फिर 25 साल की रोक लगा दी थी। इस संविधान संशोधन के अनुसार, देश में लोकसभा सीटों की संख्या 2026 के बाद ही बढ़ाई जा सकती है।