पुरुलिया। त्वरित न्याय का मंच मानी जाने वाली राष्ट्रीय लोक अदालत के दिन ही पुरुलिया में बड़ा विवाद सामने आ गया। अदालत की कार्यप्रणाली, अधिवक्ताओं की भूमिका को कथित रूप से नजरअंदाज किए जाने और प्रशासनिक हस्तक्षेप के आरोपों को लेकर पुरुलिया जिला बार एसोसिएशन ने 21 दिसंबर तक पेन डाउन आंदोलन का ऐलान किया है। इस निर्णय के चलते जिले की कई अदालतों का नियमित न्यायिक कार्य प्रभावित हुआ है।
अधिवक्ताओं की भूमिका को दरकिनार करने का आरोप
बार एसोसिएशन से जुड़े सूत्रों के अनुसार, लोक अदालत के दौरान मामलों के निपटारे में अधिवक्ताओं की राय और पेशागत गरिमा की अनदेखी की गई। कई वकीलों का आरोप है कि समझौते के नाम पर मामलों को जल्दबाजी में निपटाने का दबाव बनाया गया, जिससे न्याय की निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं।
बार एसोसिएशन ने स्पष्ट किया कि लोक अदालत स्वैच्छिक समाधान का मंच है, जहां किसी भी पक्ष पर दबाव डालना या अधिवक्ताओं की भूमिका सीमित करना कानूनी रूप से अनुचित है। इन्हीं कारणों से पेन डाउन आंदोलन का फैसला लिया गया।
“लोक अदालत फास्ट फूड काउंटर नहीं”
बार एसोसिएशन के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा कि लोक अदालत को केवल आंकड़ों के आधार पर निपटारे का मंच नहीं बनाया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, “लोक अदालत कोई फास्ट फूड काउंटर नहीं है, जहां सिर्फ तेजी के नाम पर न्याय की गुणवत्ता से समझौता किया जाए। अधिवक्ताओं के बिना न्यायिक प्रक्रिया अधूरी है। यह आंदोलन हमारे पेशागत सम्मान की रक्षा के लिए है।”
आम लोगों पर भी पड़ा असर
पेन डाउन आंदोलन का असर न्यायालयों में पहुंचे आम नागरिकों पर भी पड़ा है। कई मामलों की सुनवाई टल गई, जिससे न्यायप्रार्थियों को निराश होकर लौटना पड़ा। हालांकि बार एसोसिएशन का कहना है कि यह असुविधा अस्थायी है और न्याय व्यवस्था की पारदर्शिता व गरिमा बनाए रखने के लिए यह कदम आवश्यक है।
विशेषज्ञों की राय और आगे की राह
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रीय लोक अदालत भारतीय न्याय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण वैकल्पिक मंच है, जहां कम समय और कम खर्च में मामलों का समाधान होता है। लेकिन यदि प्रक्रिया सहभागितापूर्ण और पारदर्शी न हो, तो उसकी विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है।
फिलहाल प्रशासन की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है, लेकिन न्यायालय सूत्रों का संकेत है कि बातचीत के जरिए समाधान निकालने की कोशिश की जा सकती है।
अब सबकी निगाहें 21 दिसंबर तक चलने वाले इस पेन डाउन आंदोलन पर टिकी हैं, जिसका असर न सिर्फ अधिवक्ताओं बल्कि आम न्यायप्रार्थियों पर भी पड़ रहा है।




