धरती पर अमृत कलश छलकता रहा और उसके अनुभव को मन भर संजोने की साध के साथ जन समुदाय तत्पर और समर्पित रहा। महा-शिवरात्रि के पावन दिवस पर संगम पर आयोजित महाकुंभ के संपन्न होने के साथ हम सब विश्व के अद्भुत और अविश्वसनीय आयोजन के साक्षी बने। गंगा तट पर बालुका की सतह पर एक विशाल नगर को निर्मित कर लम्बे समय तक सभी जरूरी सुविधाएँ मुहैया करते रहना आसान न था। इतने बड़े जन समुदाय की एक स्थल पर अभूतपूर्व उपस्थिति के निश्चय ही भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक आशय और प्रभाव थे जो सिर्फ़ प्रयागराज तक कदापि सीमित न थे। उनका प्रभाव पूरे भारत पर था और देश के बाहर भी पड़ा। ये प्रभाव अल्पकाल ही नहीं दीर्घकाल तक प्रभावी बने रहेंगे। यह आयोजन भारत के गौरव को प्रतिष्ठित करने वाला सिद्ध हुआ।
भारत की सांस्कृतिक जीवन यात्रा का यह विलक्षण पड़ाव था, जिसमें केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार दोनों की भागीदारी थी। आधे भारत की जनसंख्या को समेट सकने वाले इस आयोजन की चुनौतियाँ भी कम न थीं। इस दृष्टि से बहुत से प्रबंध हाईटेक के ज़िम्मे थे। परिवहन, भोजन, आवास और यातायात को लंबे समय तक नियंत्रित और व्यवस्थित बनाए रखना बड़ी चुनौती थी। ट्रेनों की अतिरिक्त व्यवस्था भी अपर्याप्त साबित हो रही थी। हवाई जहाज का किराया बहुत बढ़ गया था पर तिस पर उसकी उपलब्धता मुश्किल थी। समर्थ लोग ज़्यादातर अपने वाहन से संगम पहुँच रहे थे।
मेला-क्षेत्र में नियंत्रण बनाए रखने के लिए कई ऐसे कदम भी उठाए गए जो आमजनों के लिए कष्टदायी थे। इसके चलते दूर-दूर पार्किंग की व्यवस्था की गई थी और इसका लोगों ने नाजायज़ फ़ायदा भी उठाया। पार्किंग से मेला क्षेत्र और स्नान के लिए बाइक पर श्रद्धालुओं को ले जाना और वापस लाना खर्चीला था पर अशक्त तथा शीघ्रता से स्नान-विधि पूरा करने को व्यग्र लोगों के लिए यह खर्च करना ही होता था। इसी तरह पेयजल की बोतल खूब मंहगी बिकी। दैनिक प्रयोग की सामग्रियों को भी मंहगी दर पर बेच कर मुनाफ़ा कमाया गया।
धर्म और आध्यात्म के कई चमकीले और भड़कीले रंग भी दिखे। नागा, अघोरी, शैव, वैष्णव और विभिन्न मत-मतांतरों का अनुसरण लेने वाले साधु-संत अंतत: आत्मचिंतन और आत्मोन्नयन की ओर ही उन्मुख होने की अपील करते रहे। उसके लिए गायन-वादन के साथ आध्यात्मिक परिवेश भी बनाया जा रहा था। उपस्थित जनसमूह में भाषा-भेद भी थे पर सभी आस्था की भाषा से आलोकित हो रहे थे। अखाड़े और उनकी पेशवाई के अवसर लोगों के लिए कौतूहल के कारण बन रहे थे। हर वर्ग, जाति, क्षेत्र और आयु के लोगों के लिए एक विलक्षण अवसर था जब सभी अपनी निजी अस्मिता और अलग पहचान छोड़ एक साझा अनुभव का हिस्सा हो रहे थे।
गंगा मैया में डुबकी लगाने की साध लिए बालक, युवा और वृद्ध सबमें अदम्य उत्साह देखने को मिला जिसकी बदौलत तमाम दुश्वारियों के बीच इतना बड़ा आयोजन हो सका। सरकारी अमले के उपर बड़ी जिम्मेदारी थी और उसने निभाई भी हालाँकि व्यवस्था की चूक भी कुछ अवसरों पर हुई जिसके चलते श्रद्धालुओं को कष्ट हुआ और दुखद प्राण-हानि की घटनाएँ भी हुईं। इनसे सीख कर भविष्य के लिए तैयारी जरूरी है जो सरल नहीं है।
यह आयोजन प्रयागवासियों के धैर्य की भी परीक्षा थी जब डेढ़ महीने तक सामान्य जीवन पर अंकुश लगे थे और आमजन को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। वीआईपी सबसे ऊपर रहे और उनकी देखभाल सब पर भारी थी। उसने बार-बार आमजनों को कष्ट दिया। संगम में जहां आम जनों का संगम हो रहा था वहीं राजनीतिक पार्टियों में सत्ता पक्ष और विपक्ष की तनातनी भी उभर कर सामने आती रही। लोक मन की उदारता से जाने कब ये दल सीख सकेंगे और दर्प तथा अहंकार की बर्फ़ पिघल सकेगी।
इतने बड़े मेले को सफलतापूर्वक आयोजित करना सरल न था। इसके लिए लंबी तैयारी, संसाधन जुटाना और स्वास्थ्य, नागरिक सुविधा, यातायात व्यवस्था को चाक- चौबंद बनाए रखना बड़ी चुनौती थी। यह सब बड़े पैमाने पर हुआ और लोगों ने सहयोग किया। समूह मन कैसे कम करता है और किस तरह आमजन अपने-अपने सच को गढ़ते हैं, इसका अंदाज़ा संगम क्षेत्र से छन कर आ रही उन किस्से-कहानियों से झलकता है जिसमें गंगा स्नान से अपने को नया करने और अपनी आस्था और निष्ठा को जीवंत करने की चेष्टा थी। एक अदम्य, उत्कट जिजीविषा और संकल्प के साथ असंख्य लोग जिस रूप में उपस्थित थे वहाँ एक सभ्यता शब्दों से अधिक भाव और कर्म में स्वयं को प्रमाणित करती दिख रही थी। वहाँ उमड़ता अपार जन समुद्र एक ही आकांक्षा को लेकर आगे बढ़ रहा था कि माँ गंगा का स्पर्श हो, उसके छींटे पड़ें और मन तृप्त हो जाए।
इस क्षण के लिए लोगों ने बहुत सारी मुश्किलों का सामना किया पर वे सबकी सब डुबकी लगाते ही झट से काफ़ूर हो गईं। लोगों को अपने अस्तित्व का मानों नया संस्करण मिल गया हो। साधु, संत, संन्यासी, गृहस्थ, भिखारी, धनाढ्य हर कोई एक ही साध के साथ गंगा के निकट और संगम क्षेत्र में जुटा था। गंगा स्नान के अवसर पर सभी एक ही भाव-धारा के अंश थे। देश का यह ऐक्य बोध एक बड़ी थाती है और लोगों के मन में अभी भी विराज रही धर्म-बुद्धि के महत्व को उजागर करती है। इसकी ऊर्जा का राष्ट्र के विकास में सार्थक निवेश होना चाहिए।