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अब रुपये (₹) के चिह्न पर विवाद!

द्रविड़ मुनेत्र कषगम। इसके दो और नाम हैं। एक-द्रमुक और दूसरा डीएमके। कुछ लोग इसे द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम भी कहते हैं। द्रमुक अब तक हिन्दी थोपने के विरोध में और तमिल भाषा की पहचान को बचाने के लिए मुखर रही है। अब उसने रुपये के चिह्न (₹) को लेकर आपत्ति जताई है। पार्टी का कहना है कि इस चिह्न में भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से दक्षिण भारतीय पहचान को उचित स्थान नहीं दिया गया है। भारतीय मुद्रा के चिह्न (₹) को लेकर द्रविड़ मुनेत्र कषगम और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों की आपत्ति क्या वाकई भाषा से जुड़ा विवाद है, या फिर यह सिर्फ़ एक राजनीतिक रणनीति? इस सवाल के कई पहलू हैं। द्रविड़ मुनेत्र कषगम और कुछ अन्य दक्षिण भारतीय दलों का तर्क है कि रुपये का चिह्न देवनागरी के “र” अक्षर से प्रेरित है, जो हिन्दी को प्राथमिकता देता है और अन्य भारतीय भाषाओं की अनदेखी करता है। हालांकि, इस चिह्न को डिजाइन करने वाले उदय कुमार धरणी (आईआईटी गुवाहाटी) का कहना था कि इसका डिजाइन देवनागरी “र” और रोमन “R” दोनों से प्रेरित है, ताकि भारतीय और वैश्विक पहचान का मिश्रण दिखाया जा सके। द्रविड़ मुनेत्र कषगम लंबे समय से हिन्दी थोपने के खिलाफ रही है। 1965 में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव के खिलाफ तमिलनाडु में बड़े आंदोलन हुए थे। द्रविड़ मुनेत्र कषगम ने पहले भी नीट, नई शिक्षा नीति और सरकारी नौकरियों में हिन्दी प्राथमिकता का विरोध किया है। अब रुपये के चिह्न को लेकर विवाद द्रमुक के उसी एजेंडे का विस्तार है।

द्रमुक का मानना है कि ₹ चिह्न देवनागरी लिपि के “र” (रुपया) से प्रेरित है, जिससे हिन्दी को प्राथमिकता मिलती है, जबकि भारत की अन्य भाषाओं की उपेक्षा होती है। इस पार्टी और तमिलनाडु के कुछ अन्य संगठनों का तर्क है कि रुपये का चिह्न देवनागरी लिपि के “र” से प्रेरित है, जिससे हिन्दी को प्राथमिकता मिलती है और अन्य भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से द्रविड़ भाषाओं (तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम) को उपेक्षित किया गया है। उनका मानना है कि मुद्रा का चिह्न ऐसा होना चाहिए, जो सभी भारतीय भाषाओं का समान रूप से प्रतिनिधित्व करे। दक्षिण भारतीय राज्यों में हिन्दी थोपने के खिलाफ पहले से ही एक मजबूत भावना मौजूद है और यह विवाद उसी का विस्तार माना जा सकता है। पार्टी का तर्क है कि भारत की मुद्रा का प्रतीक चिह्न ऐसा होना चाहिए, जो सभी भाषाओं और संस्कृतियों का समान रूप से प्रतिनिधित्व करे। इन दोलों का मानना है कि तमिल समेत दक्षिण भारतीय भाषाओं को केंद्रीय स्तर पर वह पहचान नहीं मिलती, जिसकी वे हकदार हैं।

द्रमुक और तमिलनाडु की अन्य पार्टियां हिन्दी थोपने के विरोध में कई बार आंदोलन कर चुकी हैं। द्रमुक की पूरी राजनीति ही तमिल पहचान और केंद्र के “हिंदी वर्चस्व” के खिलाफ विरोध के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यह मुद्दा 1960 के दशक में हिन्दी विरोधी आंदोलनों से शुरू हुआ था और अब तक जारी है। 2010 में जब ₹ चिह्न को अपनाया गया, तब भी यह बहस उठी थी। द्रविड़ मुनेत्र कषगम का इस मुद्दे को फिर से उछालना एक राजनीतिक रणनीति हो सकती है, ताकि तमिल अस्मिता को लेकर अपनी स्थिति मजबूत की जा सके।

हालांकि द्रविड़ मुनेत्र कषगम की कुछ आपत्तियां तर्कसंगत हो सकती हैं, लेकिन इसे पूरी तरह से भाषा का मुद्दा मानना भी सही नहीं होगा। द्रमुक केंद्र की नीतियों के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने और क्षेत्रीय राजनीति को धार देने के लिए ऐसे मुद्दों को उभारती है। यह विवाद तमिलनाडु की राजनीति में द्रविड़ मुनेत्र कषगम की पकड़ बनाए रखने और भाजपा के “हिन्दी-हिन्दू” एजेंडे का विरोध करने का एक तरीका भी हो सकता है। ₹ चिह्न किसी एक भाषा का प्रतीक नहीं है, बल्कि इसे भारतीय संस्कृति और अंतरराष्ट्रीय मानकों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया है। पहले से ही यह चिह्न पूरे देश में स्वीकार किया जा चुका है, इसलिए अब इसे बदलने की कोई व्यावहारिक जरूरत नहीं है। इस मुद्दे को उछालना एक सुनियोजित राजनीतिक रणनीति ज्यादा लगती है, बजाय किसी वास्तविक समस्या के।

द्रमुक इस मुद्दे को उछालकर केंद्र सरकार, खासकर भाजपा पर हिन्दी वर्चस्व थोपने का आरोप लगा रही है। इससे दक्षिण भारत बनाम उत्तर भारत का मुद्दा उभरता है, जिससे उसे तमिलनाडु में और समर्थन मिलता है। इससे विपक्षी गठबंधन को भी भाजपा के खिलाफ एक और हथियार मिलता है। तमिलनाडु जैसे राज्यों में क्षेत्रीय पहचान और भाषा का मुद्दा चुनाव में बहुत प्रभाव डालता है। द्रविड़ मुनेत्र कषगम इसे 2026 के विधानसभा चुनाव के लिए एक बड़े मुद्दे के रूप में भुना सकती है। वह अपने कोर वोटबेस को यह संदेश देना चाहती है कि वह तमिल पहचान और अधिकारों की रक्षा कर रही है। द्रमुक इस विवाद के जरिए दक्षिण भारत के अन्य राज्यों (केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना) में प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर सकती है, क्योंकि इन राज्यों में भी हिन्दी थोपे जाने का विरोध रहता है। भारतीय मुद्रा का यह प्रतीक किसी एक भाषा तक सीमित नहीं है, लेकिन क्षेत्रीय दलों के लिए यह केंद्र विरोधी भावनाओं को भुनाने का एक अच्छा अवसर जरूर बन गया है।

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