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सवाल संसदीय परंपरा का ही

लगातार दो बार प्रचंड बहुमत से दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने वाली आम आदमी पार्टी (आआपा) आसानी से इस बार विधानसभा चुनाव में हुई हार को पचा नहीं पा रही है। जिसके कार्यकाल में विधानसभा और संसदीय मर्यादा तार-तार हुई हो उसी पार्टी ने विधानसभा की पहली ही बैठक में उसके शासन के भ्रष्टाचार के कारनामों से जुड़े सीएजी (कैग) रिपोर्ट सार्वजनिक करने से बौखला कर विधानसभा को दंगल बनाने की असफल कोशिश की। विधानसभा अध्यक्ष विजेन्द्र गुप्ता ने आआपा विधायकों को विधानसभा के साथ-साथ विधानसभा परिसर से निकाल दिया तो पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी समेत आआपा नेताओं ने इसे संसदीय लोकतंत्र पर हमला बताया। उनके अपने कार्यकाल में न तो नियमों के हिसाब से विधानसभा की बैठक बुलाई जाती थी और न ही विपक्ष को किसी सत्र में ढंग से बोलने दिया जाता था। विपक्ष यानी भाजपा के सदस्य ज्यादातर बैठकों में सदन से बाहर ही रहे। 1993 में दिल्ली विधानसभा का मौजूदा स्वरूप बनने के बाद इसकी नियमावली बनानेवाले दिल्ली विधानसभा और लोकसभा के पूर्व सचिव सुदर्शन कुमार शर्मा का कहना है कि विधानसभा से निष्कासन का मतलब विधानसभा परिसर से निष्कासन हो सकता है- इस पर चर्चा हो सकती है लेकिन वे कैसे सवाल उठा सकते हैं, जिन्होंने विधानसभा में कोई नियम ही लागू नहीं होने दिया। तभी तो दिल्ली संशोधन विधेयक पर बिल पास करवाने से पहले केन्द्रीय गृह मंत्री ने चेतावनी दी थी कि कहीं नियमों को न मानने वालों की सरकार विधानसभा से ही हाथ धो बैठे।

आआपा के दिल्ली पर शासन के दौरान दिल्ली में तीन उप राज्यपाल बने और तीनों से उनकी लड़ाई चलती ही रही। आआपा ने कई नई परंपराएं शुरू करके संवैधानिक व्यवस्थाओं को खतरे में डाल दिया था। 2012 में नई पार्टी बनकर पहले 2013 में अल्पमत सरकार नियमों के खिलाफ बिना उप राज्यपाल की अनुमति से जन लोकपाल विधेयक विधानसभा में न लाने देने पर 49 दिन में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। नियमों से परे जाकर सार्वजनिक अवकाश के दिन रामलीला मैदान में विधानसभा बुलाने पर केजरीवाल अड़े रहे। यह अलग बात है कि दो बार भारी बहुमत से सरकार बनने बाद दोबारा उनकी सरकार ने जन लोकपाल की चर्चा भी नहीं की गई। खुद अपने लोकपाल को पार्टी से ही विदा कर दिया। विधान में विधानसभा की बैठक अधिकतम छह महीने पर बुलाने का प्रावधान है। इसी के चलते लोकसभा से विधानसभा तक साल में तीन सत्र होते हैं। साल के शुरू में होने वाली बैठक को बजट सत्र कहा जाता है और उसकी शुरुआत संसद में राष्ट्रपति और दिल्ली में उप राज्यपाल के अभिभाषण से होता है। परंपरा के तौर पर सरकार के कामकाज को ही अभिभाषण में जगह दी जाती है। उस सत्र में इस प्रस्ताव को पास करवाने से लेकर बजट पास किया जाना मुख्य काम रहता है। जुलाई-अगस्त में होने वाले सत्र को मानसून और नवंबर-दिसंबर में होने वाले सत्र को शीतकालीन सत्र कहा जाता है। हर सत्र को बुलाने और सत्रावसान करने के लिए मंत्रिमंडल अपना प्रस्ताव उप राज्यपाल को भेजती है। अमूनन उस पर उप राज्यपाल की तुरंत मंजूरी आ जाती है। विशेष परिस्थिति में विशेष सत्र की भी इजाजत उसी तरह से ली जाती है। पिछली सरकारें गिनती के लिए विशेष बैठक बुलाई थी।

दिल्ली में विधानसभा बनने पर 1993 में पहली सरकार भाजपा की बनी। पांचों साल भाजपा सरकार ने नियमों का पालन करके अधिकतम तीन-तीन बार बैठक बुलाई। 1998 में शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनी। 15 साल के शासन में कांग्रेस सरकार ने तीन बार एक-एक दिन का विशेष सत्र भी नियमों के हिसाब से उप राज्यपाल की अनुमति लेकर बुलाई। आआपा ने तो कोई नियम और परंपरा के हिसाब से चलना स्वीकार नहीं किया। पूरे दस साल आआपा सरकार साल के शुरू में उप राज्यपाल का अभिभाषण कराना अनिवार्य होने से एक सत्र नियमानुसार बुलाती थी। बाद में उसी का विस्तार करके केवल विधानसभा अध्यक्ष को कह कर कई-कई बैठकें बुलाती थी। नियमित सत्र एक होता था और विशेष अनगिनत। आआपा सरकार ने साल 2015 और 2017 में सात-सात बार, 2016 में छह बार और 2023 में पांच बार बैठक हुई लेकिन सत्र एक ही रहा।

सत्र का सत्रावसान इसलिए भी जरूरी है कि जब सत्र न चल रहा हो तो आपात काल में सरकार अध्यादेश ला सके। जब प्राकृतिक या कोई आपदा होगी तब सत्र बुलाना संभव वहीं होगा। सत्रावसान के बिना कोई फैसला पहले सदन में लिया जाता है और फिर उसे लागू किया जाता है। सत्रावसान हुआ नहीं और सदन चल रहा नहीं, ऐसे में तो आआपा सरकार ने सदन को भी मजाक बना दिया था। सत्र शुरू तो होता था लेकिन सत्रावसान होता ही नहीं था। जिस उप राज्यपाल के नाम पर विधानसभा की बैठक बुलाई जाती है, उनकी निंदा करने के लिए बैठक बुलाई गई। एक बार तो सारी मर्यादाएं तोड़ दी गई जब विधानसभा के भीतर उप राज्यपाल को हटाने के लिए सारी रात धरना दिया गया। विधानसभा परिसर में पहली बार आआपा विधायकों ने धरना देकर विधानसभा की परंपरा और मर्यादाओं को तार-तार किया।

जुलाई, 2018 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने4 अगस्त, 2016 के दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा कि गैर आरक्षित विषयों में दिल्ली की सरकार फैसला लेने के लिए स्वतंत्र है। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि दिल्ली सरकार का मतलब उप राज्यपाल है। तब तक दिल्ली सरकार की उप राज्यपाल से इस कदर टकराव बढ़ा थी कि उप राज्यपाल ने आरक्षिक विषयों पर सरकार और विधानसभा में चर्चा करानी तक बंद करवा दी थी। उसके बाद पिछले साल मार्च महीने में संसद के दोनों सदनों से ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (संशोधन)-2021’ विधेयक पास करवाकर उप राज्यपाल को पहले से ज्यादा ताकतवर बना दिया। इसी बदलाव के चलते हर फैसले में उप राज्यपाल की सहमति जरूरी है। लोकसभा में दिल्ली सरकार में काबिज आआपा का कोई सांसद न होने के चलते इस संशोधन विधेयक का विरोध कांग्रेस जैसे विरोधी दल ही कर पाए, राज्य सभा में अन्य विपक्षी दलों के साथ-साथ आआपा के सांसदों ने विरोध किया। उसके जवाब में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अन्य बातों के अलावा यह भी कह दिया कि नगर निगम एकीकरण के ज्यादा विरोध में कहीं अपनी सरकार न गंवा बैठें। वैसे बाद में इस पर न तो कोई सफाई आई न चर्चा हुई लेकिन पिछले कुछ सालों से चल रहे हालात से यह चर्चा तेज हो गई थी कि कहीं विधानसभा खत्म हो जाए और फिर से महानगर परिषद् जीवित हो जाए। जिसे खत्म करके ही 1993 में विधानसभा दी गई थी।

संविधान के जानकार सुदर्शन कुमार शर्मा ने तभी कहा था कि संविधान के जिस 69 वे संशोधन के तहत दिल्ली को विधानसभा मिली, उसमें यह भी लिखा हुआ है कि इसमें कोई भी संशोधन मूल विधान में संशोधन माना जाएगा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ज्यादा बदलाव कर पाएगी, इसमें संदेह है। यही हुआ भी। आजतक उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ। एक समय यह था कि विधानसभा की 1993 में नियमावली बनाते समय तब के उप राज्यपाल पीके दवे ने दिल्ली की पहली निर्वाचित सरकार के अनुरोध पर आरक्षित विषयों- जमीन (दिल्ली विकास प्राधिकरण), कानून- व्यवस्था और दिल्ली पुलिस के कामकाज पर भी विधानसभा में उसी तरह से चर्चा करने के लिए विधान बनाने की आजादी दी जैसे अन्य विषयों में चर्चा करने का प्रावधान नियमावली में बन रहा था। विधानसभा में आराम से आरक्षित विषयों पर चर्चा होती थी। जिस तरह बाकी विभाग प्रमुख प्रश्नकाल या चर्चा के समय विधानसभा के अधिकारी दीर्धा में मौजूद रहते थे उसी तरह से दिल्ली पुलिस आयुक्त, दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) उपाध्यक्ष आदि मौजूद रहते थे। आआपा सरकार के दिनों में तो यह कोई सोच ही नहीं सकता था। इतना ही नहीं, तब के मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना के अनुरोध पर दिल्ली सरकार के आलाधिकारियों के एसीआर (सालाना गोपनीय रिपोर्ट) लिखने का अधिकार मुख्यमंत्री और मंत्रियों को दे दिया था। उप राज्यपाल केवल कुछ अधिकारियों के रिपोर्ट को रिव्यू (फिर से जांच) करते थे। जबकि अधिकारी यानी सेवाएं आरक्षित विषय है। शायद दिल्ली में 27 साल बाद बाजपा सरकार बनने और केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में मजबूत सरकार होने के चलते लोगों में यह उम्मीद जग रही है कि दिल्ली विधानसभा में फिर से 1993-98 वाले दिन लौटें।

दिल्ली में 27 साल बाद पिछले महीने रेखा गुप्ता की अगुवाई में भाजपा सरकार बनी है। 24 फरवरी से तीन मार्च तक विधानसभा की पहली बैठक विधायकों के शपथ लेने, विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के चुनाव के अलावा उपराज्यपाल के अभिभाषण के लिए बुलाई गई थी। लगे हाथ आआपा सरकार में सार्वजनिक करने से रह गई सीएजी रिपोर्ट पर चर्चा करवा दी गई। अभी कई विभागों की रिपोर्ट इस महीने होने वाले बजट सत्र में लाने की चर्चा है। सीएजी रिपोर्ट ने कट्टर ईमानदार होने का फर्जी दावा करने वाली आआपा सरकार के भारी भ्रष्टाचारी होने पर मुहर लगा दी। पार्टी के एकछत्र नेता अरविंद केजरीवाल खुद विधानसभा चुनाव हार कर सदन से बाहर हो गए हैं। ऐसे में पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी और अन्य नेताओं के पास विधानसभा में हंगामा करने के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं है। कभी किसी महापुरुष के फोटो का स्थान बदलने पर तो कभी परिसर में प्रवेश को मुद्दा बनाकर शोर मचाकर मीडिया में अपनी उपस्थिति बनाए रखना चाहते हैं। ये वही नेता हैं जो मीडिया के बूते सड़क से सरकार में आए और आते ही मीडिया पर तमाम पाबंदियां लगा दी। मीडिया की दिल्ली सचिवालय तक में निर्बाध पाबंदी रोक दी गई। अब अपने को पीड़ित बताकर फिर से उसी मीडिया के कंधों पर सवार होकर सत्ता की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं। जिन लोगों ने संसदीय मर्यादाओं का उल्लंघन किया, उसे मजाक बनाया, वही नेता अपनी मनमानी रोकने पर संसदीय मर्यादाओं की दुहाई देकर मीडिया और जनता से सहानुभूति पाना चाहते हैं।

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