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कैलाश मानसरोवरः समझदारी दिखाएंगे भारत-चीन?

साल 2025 की गर्मियों में भारत और चीन के बीच कैलाश मानसरोवर यात्रा एक बार फिर शुरू हो जाएगी। दोनों देशों के बीच इस यात्रा को लेकर दोबारा सैद्धांतिक सहमति बन चुकी है। वहीं, विगत पांच वर्षों से थमी हुई इस यात्रा को पुनः शुरू करने के लिए दोनों देश डायरेक्ट फ्लाइट शुरू करने को लेकर भी तैयार हो गए हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार, एक द्विपक्षीय बैठक में इस आशय की सहमति बनी है।

हालांकि, कैलाश मानसरोवर का जिक्र होते ही सबसे पहले हर किसी के मन में यही सवाल उठता है कि कैलाश मानसरोवर किसका है? जब भगवान शिव भारतीयों के देवाधिदेव महादेव हैं तो फिर यह पुण्यभूमि तिब्बतियों/चीनियों की कैसे हो गई? क्या तिब्बत/चीन ने इस पर जबरन कब्जा किया है? आखिर इससे जुड़ी कैलाश मानसरोवर की वह क्या कहानी है, जिसपर इतिहासकारों और विद्वानों के अलग-अलग आलेख उपलब्ध हैं।

वहीं, लोगों के मन में यह विचार पैदा हो रहा है कि यदि ‘कैलाश-मानसरोवर’ की चीन द्वारा जबरिया परिवर्तित स्थिति को पुनः बदलने के लिए भारत सरकार ने समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए तो भविष्य में रामजन्म भूमि आंदोलन की तरह हिंदुओं की जनभावना भड़केगी और चीनी कब्जे से इस पुण्यभूमि को मुक्त कराने के लिए देशव्यापी/विश्वव्यापी अभियान चलाया जाएगा। इससे यह पावन क्षेत्र एशिया का दूसरा ‘येरुशलम’ बन जाएगा! क्योंकि इस पवित्र भूमि से न केवल हिंदुओं बल्कि भारतीय जैनियों-बौद्धों की भी जनभावनाएं जुड़ी हुई हैं।

शायद इसी नजरिए से बौद्ध मतावलंबी देश चीन ने भी इस पर कब्जा जमाया है, जिससे भारतीय हिंदुओं-जैनियों में व्यापक रोष देखा-सुना जाता है। बता दें कि भारत के पूर्व राजदूत पी स्टोबदान ने अपने एक आलेख में लिखा है कि कैलाश मानसरोवर और इसके आसपास का इलाका 1960 के दशक तक भारत के अधिकार क्षेत्र में आता था। लेकिन उसके बाद तत्कालीन भारत सरकार की कमजोरी का फायदा उठाते हुए चीन ने इस पर कब्जा कर लिया। बता दें कि 1959 में पहली बार चीन ने अपने नक्शे में सिक्किम, भूटान से लगते कैलाश मानसरोवर के बड़े हिस्से को अपने अधिकार क्षेत्र में दिखाया था। हालांकि तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसद के बाहर और भीतर इसका जोरदार विरोध दर्ज कराया।

इस बारे में पूर्व राजदूत स्टोबदान ने लिखा है कि नेहरू ने ये जमीन भले चीन को सौंपी न हो लेकिन वो इसे बचा नहीं पाए। साथ ही वह चीन को इस हरकत से रोक नहीं पाए। जबकि 1961 की आधिकारिक रिपोर्ट में कैलाश के पास के क्षेत्रों पर भारत के ऐतिहासिक, प्रशासनिक और राजस्व अधिकारों का पूरा विवरण दिया गया था। चीन ने तब इसका विरोध नहीं किया था। वहीं, 1947 में जम्मू-कश्मीर रियासत से किए गए समझौते में मेन्सर इलाके को चीन को दिए जाने का जिक्र भी नहीं है। मेन्सर इलाके पर दावे को लेकर कोई कानूनी हल नहीं हुआ है।

समझा जाता है कि तब से इस कैलाश पर्वत को गंवाने को लेकर हिंदुओं, जैनियों व बौद्धों के मन में कसक है। सभी इसे पुनः पाने को लेकर अपने अपने स्तर से सक्रियता दिखाई है। जनजागृति हेतु अंदरूनी तैयारियां भी चल रही हैं। इसलिए कूटनीतिज्ञ बताते हैं कि कैलाश मानसरोवर क्षेत्र एशिया का दूसरा यरूशलेम बन सकता है क्योंकि जिस तरह से यरूशलेम पर कब्जे को लेकर यहूदी-ईसाई-इस्लाम के बीच अनवरत संघर्ष जारी है, कुछ वैसा ही संघर्ष भविष्य में कैलाश मानसरोवर को लेकर शुरू हो सकता है जो कि हिंदुओं-जैनियों-बौद्धों के प्राचीनतम श्रद्धा केन्द्रों में शुमार किया जाता है।

पौराणिक धर्मग्रंथों के मुताबिक, कैलाश पर्वत हिंदुओं के लिए भगवान शिव का पवित्र निवास है। जबकि बौद्ध धर्म में कैलाश पर्वत को कांग रिनपोछे यानी बर्फ के अनमोल रत्न के रूप में नवाजा जाता है, जिसे ज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति से जुड़ा एक पवित्र स्थल माना जाता है। बौद्ध धर्म में कैलाश पर्वत को ‘मेरु पर्वत’ के नाम से जाना जाता है और इसे डेमचोक का निवास स्थान माना जाता है। वहीं, जैनियों के लिए कैलाश पर्वत को अष्टपद के रूप में जाना जाता है। यह उनके पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ से जुड़ा हुआ है। यह आध्यात्मिक जागृति और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के स्थान के रूप में महत्व रखता है।

वहीं, महाकवि माघ की रचना में भी कैलाश का जिक्र मिलता है। महाकवि माघ की लिखी शिशुपालवधम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग में कैलाश का जिक्र मिलता है। बता दें कि भगवान शिव और जैनियों के भगवान आदिनाथ के कारण ही संसार के सबसे पावन स्थानों में कैलाश पर्वत गिना जाता है। दरअसल, कैलाश पर्वत को भगवान शिव का घर कहा गया है, जहां बर्फ में भगवान महादेव तप में लीन बेहद शांत और निश्चल हैं। कैलाश पर्वत के बारे में संस्कृत साहित्य के कई काव्यों में जिक्र मिलता है।

वहीं, पी स्टोबदान के मुताबिक, लद्दाख के राजा त्सावांग नामग्याल का शासन क्षेत्र कैलाश मानसरोवर के मेन्सर नामक जगह तक था। ये पूरा इलाका भारत, चीन से लेकर नेपाल की सीमा तक फैला था। 1911 और 1921 की जनगणना में कैलाश मानसरोवर वाले इलाके के मेन्सर गांव में 44 घर होने की बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज है। हालांकि, 1958 के जम्मू-कश्मीर समझौते के मुताबिक मेन्सर चीन के कब्जे में चला गया। क्योंकि यह इलाका चीन के कब्जे वाले लद्दाख तहसील के 110 गांवों में शामिल था।

वहीं, कैलाश-मानसरोवर की ऐतिहासिक स्थिति के बारे में मशहूर लेखक ओसी हांडा ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ उत्तरांचल’ में लिखा है कि मुगल बादशाहों के दौर में उत्तराखंड के कुमाऊं में चांद वंश के राजा बाज बहादुर का शासन (1638-1678) था। जिनका तत्कालीन मुगल बादशाहों-शाहजहां और औरंगजेब से काफी अच्छे संबंध थे। चूंकि उस वक्त पहाड़ों पर हूणों का आतंक था। इसलिए उनके आतंक को खत्म करने के लिए राजा बाज बहादुर ने तिब्बत पर हमला करने की योजना बनाई। तब उन्होंने दर्रा पार करके पूरे मानसरोवर को अपने कब्जे में लिया। क्योंकि यह हिंदुओं के आराध्य भगवान शिव के शिवलोक नाम से मशहूर धराधाम है, जहां भगवान शिव-पार्वती साक्षात विराजमान समझे जाते हैं।

वहीं, स्वनामधन्य लेखक मनमोहन शर्मा की किताब ‘द ट्रेजेडी ऑफ तिब्बत’ में लिखा गया है कि कुमायूं के राजा बाज बहादुर ने जुहार दर्रे के रास्ते अपनी सेना के साथ तिब्बत की ओर बढ़े और हूणों के मजबूत गढ़ टकलाकोट पर कब्जा कर लिया। संभवतया इतिहास में यह पहली बार था कि किसी भारतीय राजा ने तिब्बत के इस गढ़ पर कब्जा किया था। वहीं, इसके बाद 1841 में जम्मू की डोगरा सेना ने भी इस क्षेत्र पर कब्जा किया। उल्लेखनीय है कि राजा बाज बहादुर ने देहरादून और मानसरोवर के पूरे इलाके को 1670 में कुमाऊं साम्राज्य में मिला लिया था, जो उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि थी। हालांकि, कैलाश मनसरोवर पर कब्जे को लेकर इतिहास बहुत धुंधला है।

फिलहाल, कैलाश मानसरोवर का क्षेत्र चीन अधिकृत तिब्बत में पड़ता है। इस पर ब्रिटिश अभियान साल 1903 में शुरू हुआ और साल 1904 तक चला। अंग्रेजों ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा पर आक्रमण किया। फिर अंग्रेजों को इस पर नियंत्रण पाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। हालांकि तिब्बत को 24 अक्टूबर, 1951 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने अपने अधीन कर लिया था। कैलाश पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटियों में से एक कैलाश पर्वत है, जो ट्रांस-हिमालय का ही हिस्सा है। यह चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में स्थित है। यह पर्वत चीन, भारत और नेपाल के पश्चिमी ट्राई जंक्शन पर स्थित है।

स्वामी शिवानंद जी महाराज, राजयोग धाम, तारापीठ ने अपनी रचनाओं में बताया था कि कैलाश मानसरोवर तीर्थ को अष्टपद, गणपर्वत और रजतगिरि भी कहते हैं। कैलाश के बर्फ से ढंके 6,638 मीटर (21,778 फुट) ऊंचे शिखर और उससे लगे मानसरोवर का यह तीर्थ है। इस प्रदेश को मानसखंड कहते हैं। कैलाश की परिक्रमा तारचेन से आरंभ होकर वहीं समाप्त होती है। तकलाकोट से 40 किलोमीटर दूरी पर मंधाता पर्वत स्थित गुर्लला का दर्रा है। इसके मध्य में पहले बायीं ओर मानसरोवर झील है और दायीं ओर राक्षस ताल झील है। वहीं, इसके उत्तर की ओर दूर तक कैलाश पर्वत के हिमाच्छादित धवल शिखर का रमणीय दृश्य दिखाई पड़ता है। यहां दर्रा समाप्त होने पर तीर्थपुरी नामक स्थान है जहां पर गर्म पानी के झरने हैं। इन झरनों के आसपास चूनखड़ी के टीले हैं। लोक मान्यता है कि भस्मासुर ने यहीं पर तप किया और यहीं पर वह भस्म भी हुआ था।

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, रावण ने कैलाश मानसरोवर में ही भगवान शिव की स्तुति में ‘शिव तांडव स्तोत्र’ का पाठ किया था। जबकि हिन्दू मतों के मुताबिक, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में इस प्रदेश के राजा ने उत्तम घोड़े, सोना, रत्न और याक के पूंछ के बने काले और सफेद चामर भेंट किए थे। वहीं, पौराणिक कथाओं के अनुसार, जैन धर्म के भगवान ऋषभदेव ने यहीं निर्वाण प्राप्त किया।

हिन्दू धर्मग्रंथों में कहा जाता है कि इस पर्वत का निर्माण 30 मिलियन वर्ष पहले हुआ था। कैलाश मानसरोवर यात्रा एक पवित्र तीर्थयात्रा है, जिसे मोक्ष का प्रवेश द्वार माना जाता है। कैलाश पर्वत तिब्बत में स्थित एक पर्वत श्रेणी है, जिसके पश्चिम और दक्षिण में मानसरोवर एवं राक्षसताल झील स्थित हैं। माना जाता है कि कैलाश पर्वत श्रृंखला का निर्माण हिमालय पर्वत श्रृंखला के शुरुआती चरणों के ही दौरान हुआ था। इसलिए कैलाश पर्वतमाला के निर्माण के कारण हुए भूगर्भीय परिवर्तन से चार नदियां भी जन्मीं, जो अलग-अलग दिशाओं में बहती हैं- ये चार नदियां हैं- सिंधु, करनाली, यारलुंग त्सांगपो यानी ब्रह्मपुत्र और सतलुज। उल्लेखनीय है कि कैलाश पर्वतमाला कश्मीर से लेकर भूटान तक फैली हुई है जो भारत और तिब्बत को भौगोलिक रूप से अलग-थलग करती है।

बता दें कि भारत और चीन के बीच सालों तक रिश्तों पर जमी बर्फ अब फिर से पिघलने लगी है दोनों देश पुनः नए सिरे से दोस्ती का हाथ बढ़ा चुके हैं। शायद पुरानी बातें भूलकर आपसी रिश्तों की नई पटकथा लिखने में जुट चुके हैं। इसका जमीनी असर भी दिखने लगा है। पहले तो एलएसी पर सीमा विवाद सुलझा और दोनों देशों के सैनिक पीछे हटे। फिर जहां-जहां तनाव था, वहां से डिसइंगेजमेंट हो गया। वहीं, अब कैलाश मानसरोवर यात्रा पर सफलता हाथ लगी है। भारत और चीन ने गत सोमवार को ही अपने रिश्तों के पुननिर्माण की दिशा में यह अहम घोषणा की।

जानकार बताते हैं कि कैलाश मानसरोवर यात्रा की शुरुआत भारत और चीन के रिश्तों में मील का पत्थर है। क्योंकि वर्ष 2020 के बाद से ही कैलाश मानसरोवर यात्रा के साथ-साथ दोनों देशों के बीच सीधी उड़ानें बंद हैं। दरअसल, साल 2020 में भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी और पैंगोंग त्सो झील के पास झड़पें हुई थीं, जिसके बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया था। यह तनाव इतना ज्यादा था कि दोनों देशों ने सीमा पर अपने सैनिकों की तैनाती बढ़ा दी थी। साथ ही हर तरह के संबंध तोड़ दिए थे।

अब रूसी हस्तक्षेप के बाद पुनः शुरू हुई पारस्परिक बातचीत से भारत और चीन के बीच रिश्ते सुधरने लगे हैं। इन्हीं बातचीत का नतीजा है कि अब दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य होने लगे हैं। इसकी पटकथा दिल्ली से 3750 किलोमीटर दूर स्थित रूस के कजान शहर में लिखी गई। जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच मुलाकात हुई। दरअसल, साल 2024 के अक्टूबर महीने में पीएम मोदी और शी जिनपिंग कजान शहर में ब्रिक्स समिट में शरीक हुए थे। तभी समिट से इतर पीएम मोदी और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग की मुलाकात हुई थी। तब दोनों नेताओं के बीच करीब एक घंटे तक बातचीत हुई। मुलाकात में ही सीमा पर शांति और दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने पर सहमति बनी थी। इसी दौरान सीमा पर तनाव कम करने, कैलाश मानसरोवर यात्रा और डायरेक्ट फ्लाइट की बहाली पर पीएम मोदी ने जिनपिंग को समझाया था। यही वह मुलाकात थी, जिसके बाद भारत और चीन के बीच बातचीत का चैनल सक्रिय हो गया था।

लिहाजा, भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि कैलाश मानसरोवर यात्रा की फिर से बहाली और सीधी उड़ानों को शुरू होने के पीछे पीएम मोदी और शी जिनिपंग के बीच मुलाकात ही है। मंत्रालय ने कहा कि जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच अक्टूबर में कजान में हुई बैठक में सहमति बनी थी, विदेश सचिव मिसरी और चीनी उप विदेश मंत्री सुन ने भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों की स्थिति की ‘व्यापक’ समीक्षा की और संबंधों को ‘‘स्थिर करने और पुनर्निर्माण’ करने के लिए कुछ जन-केंद्रित कदम उठाने पर सहमति व्यक्त की। भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी चीन से संबंधों को और बेहतर करने के लिए गत रविवार को बीजिंग के दौरे पर गए।

प्रधानमंत्री मोदी और जिनपिंग की पिछली मुलाकात के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीनी समकक्ष वांग यी की मुलाकात हुई थी। तभी दोनों के बीच भारत-चीन सीमा पर सैनिकों की वापसी पर चर्चा हुई थी। साथ ही भारत और चीन के रिश्तों को 2020 से पहले वाली स्थिति में करने पर भी बातचीत हुई थी। इतना ही नहीं, दिसम्बर 2024 में एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने बीजिंग का दौरा किया था। तब सीमा विवाद पर विशेष प्रतिनिधि (एसआर) वार्ता के ढांचे के तहत उन्होंने चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ बातचीत की थी। इन बातचीत और मुलाकातों ने भारत और चीन के बीच रिश्तों को नया मुकाम दिया। इसका असर हुआ कि अब भारत और चीन के बीच रिश्ते सुधरते दिख रहे हैं।

गौरतलब है कि कैलाश मानसरोवर तीर्थ यात्रा का आयोजन भारत का विदेश मंत्रालय करता है, जो उत्तराखंड, सिक्किम और तिब्बत से होती है। भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के हवाले इस यात्रा की पूरी सुरक्षा होती है। वहीं, कुमायूं मंडल विकास निगम और सिक्किम पर्यटन विकास निगम कैलाश की यात्रा कर रहे श्रद्धालुओं को मदद देती है। वहीं, दिल्ली हार्ट एंड लंग इंस्टीट्यूट की ओर से यात्रा पर जाने वाले लोगों का फिटनेस टेस्ट किया जाता है। यात्री के अनिफट पाए जाने पर उसकी यात्रा कैंसिल हो सकती है। यदि आप भी कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाना चाहते हैं तो विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर आप कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करवा सकते हैं। यात्रा के लिए अपने पास पासपोर्ट साइज फोटो, पासपोर्ट का पहला और आखिरी पेज का फोटो, फोन नंबर और ईमेल अपने पास रखें। इस यात्रा को पूरा करने में तकरीबन 25 दिन का समय लगता है। इसमें 2 से 3 लाख तक खर्चा आ सकता है।

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