साहित्य में आदर्शों की बातें होती हैं, लेकिन जब व्यवहार की बारी आती है तो वही आदर्श बौने हो जाते हैं। पटना में साहित्यिक रेज़िडेंसी में हुई अभद्रता की घटना ने न सिर्फ पितृसत्तात्मक ढांचे को उजागर किया है, बल्कि हिन्दी साहित्य की नैतिक गिरावट को भी। अब वक्त है चुप्पी तोड़ने का।
गर्मी की मार, फसलों की मार, जल संकट और बाढ़—धरती अब दहकने लगी है। क्या हम सिर्फ आंकड़े गिनते रहेंगे या बदलाव लाने के लिए खड़े होंगे? भारत का जवाब नीति, नवाचार और पौधरोपण है — क्या आप जुड़ेंगे इस मुहिम से?