हर साल जून का महीना उत्तराखंड की केदारनाथ त्रासदी की वेदना को ताज़ा कर देता है। 16 जून 2013 की वो रात सिर्फ एक आपदा नहीं थी, बल्कि एक दिव्य चेतावनी थी, जो हमें प्रकृति के साथ संतुलन की पुकार दे रही थी।
उस समय जब गढ़वाल में त्रासदी घट रही थी, मैं कैलाश मानसरोवर यात्रा पर था। उत्तराखंड के कुमाऊं से शुरू होकर तिब्बत तक जाने वाली इस यात्रा में शिव के साक्षात दर्शन होते हैं। लेकिन उसी समय केदार घाटी में बादल फटने, भूस्खलन और तबाही ने हजारों लोगों को काल का ग्रास बना लिया।
इस अनुभव ने सिखाया –
“पहाड़ पर पहाड़ जैसे रहना, जैसा वह रखे वैसा रहना।”
शिव की भूमि में यही सच्ची भक्ति है – स्वीकृति, संयम और समर्पण।
🌿 हिमालय – प्रकृति और परमात्मा का संगम
उत्तराखंड सिर्फ पर्वतों और नदियों की भूमि नहीं, देवभूमि है। यहां लोकगीतों में शिव बसते हैं और बच्चे भी नंदा देवी की कहानियों से बड़े होते हैं। यह संस्कृति श्रद्धा और प्रकृति के बीच संतुलन का पाठ पढ़ाती है।
🔬 अब भी जारी है पहचान की तलाश
2013 की त्रासदी के 12 साल बाद भी 702 शवों की डीएनए से पहचान नहीं हो सकी है। 6000 से अधिक लोगों ने अपने अपनों की खोज में डीएनए नमूने दिए, लेकिन अब भी कई परिवार अनिश्चितता में हैं।
⚠️ प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम है आपदा
यह त्रासदी हमें सिखाती है – विकास बिना संतुलन विनाश की ओर ले जाता है। यदि हम पर्वतीय जीवनशैली, नदियों और जंगलों को नहीं समझेंगे, तो हम बार-बार इन चेतावनियों से टकराते रहेंगे।
🛡️ संदेश:
कैलाश और केदार चेतना के दो रूप हैं। एक मौन तपस्या (कैलाश), दूसरा प्रकट करुणा (केदार)। दोनों हमें यही सिखाते हैं –
जो गया, वह शिव में लीन हुआ;
और जो बचा, वह शिव की इच्छा से ही बचा है।
🙏 आइए प्रण लें कि हम प्रकृति, संस्कृति और चेतना के संतुलन के साथ जीएंगे। यात्राओं को संयम और श्रद्धा से करेंगे। और देवभूमि की रक्षा को अपना धर्म मानेंगे।
ॐ नमः शिवाय। ॐ शांति! शांति!! शांति!!!