-आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण
वसन्त की आहट है। उसकी पगचाप सुनाई पड़ने लगी है। रूप-रंग-रस और सौरभ से समृद्ध हुई धरती अपने हृदय का सञ्चित राग उड़ेल देने को मानो उत्सुक है। हो भी क्यों न ! वसन्त सभी ऋतुओं का अधिपति जो है, यह ऋतुराज है। इसका आश्रय पाकर चराचर जगत् में सर्वत्र माधुर्य और मनोहरता का प्रसार हो जाता है। वेदों के अनुसार वसन्त इस सृष्टि-यज्ञ का घृत है-‘वसन्तोऽस्यासीदाज्यं।’ यह ब्रह्माण्ड जिसमें हमारा जीवन अधिष्ठित है, वसन्त इसका घी है, ग्रीष्म ईंधन है और शरद हवि है। वसन्त के घी होने में उसका वैशिष्ट्य निहित है। घी स्नेह है, यह रस का-राग का कारक है। महाकवि कालिदास इस वसन्त को प्रिय कहते हैं- ‘सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते।’
मैथिल-कोकिल विद्यापति भी वसन्त का गुणगान करने से चूकते नहीं। वे वसन्त के जन्म की कथा कहते हैं। उनके अनुसार श्रीपञ्चमी वसन्त-प्रसवा तिथि है। नौ महीने और पाँच दिन के बाद वह शिशु वसन्त को प्रकट करने वाली है। वसन्त के जन्म के सुन्दर रूपक के साथ विद्यापति वसन्त के राजकीय वैभव का वर्णन करते हुये कहते हैं- ‘आएल रितुपति राज बसंत। ऋतुओं के राजा वसन्त का आगमन हुआ। उसके आगमन पर केसर के पुष्पों ने स्वर्णदण्ड को धारण किया। वृक्षों के नए पत्ते राजा के लिए आसन बने। राजा वसन्त के सिर पर चम्पा के पुष्पों का छत्र सजाया गया है। आम्र मञ्जरी ऋतुराज के सिर का मुकुट बनी हुई है और कोयल उसके सामने पंचम स्वर में गा रही है। पक्षियों का समूह वहाँ आकर आशीर्वाद के मन्त्र पढ़ने लगा। कुन्द लता ने राजा वसन्त की पताका का रूप धारण कर लिया है। पलाश के पत्ते तथा लवंग लता ने एक होकर धनुष व उसकी डोरी का रूप धारण कर लिया है। राजा वसन्त के इन अस्त्र-शस्त्रों को देखकर शत्रु शिशिर ऋतु की सेना भाग खड़ी हुई।’
इसी सुराज्य और सुशासन में प्रकट होती हैं देवी सरस्वती। सरस्वती जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं। बुद्धि-विद्या और समस्त बोध-विज्ञान की जननी हैं। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में सरस्वती को शास्त्रों की जननी, शुद्ध शान्तस्वरूपा एवं कविगण की इष्ट देवी कहा गया है।
सस्मिता सुदती वामा सुन्दरीणाञ्च सुन्दरी। श्रेष्ठा श्रुतीनां शास्त्राणां विदुषां जननी परा॥
वागधिष्ठातृदेवी सा कवीनामिष्टदेवता। शुद्धसत्त्वस्वरूपा च शान्तरूपा सरस्वती॥
अपनी ज्ञान-परम्परा के कारण विश्व भर में समादृत भारत देश में सरस्वती ‘भारती’ कहलाती हैं। भारती जो भारत को धारण करती हैं। ऋग्वेद के वाक्सूक्त को देखते हुये यह अद्भुत बात सामने आती है कि वाग्देवी कहती हैं कि मैं ही ‘राष्ट्री’ अर्थात् राष्ट्र को धारण करती हुई इसकी स्वामिनी हूँ। मैं ही यज्ञ करने वालों की पहली आकांक्षा हूँ। देवता मेरा ही सर्वत्र अनुसन्धान करते हैं और मैं ही आत्मसाक्षात्कार पूर्वक समस्त समृद्धि को प्रदान करने वाली हूँ।
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥
रुचि और राग से समृद्ध ऋतुराज वसन्त के प्राकट्य के समय ही देवी सरस्वती के प्राकट्य का प्रसंग हमें प्राप्त होता है। शास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार माघ शुक्लपक्ष में लक्ष्मी की प्रिय श्री देने वाली जो ‘श्रीपञ्चमी’ कहलाती है उसी तिथि को पूर्वाह्न में देवी सरस्वती का उत्सव किया जाना चाहिये-
माघे मासि सिते पक्षे पञ्चमी या श्रियः प्रिया। तस्याः पूर्व्वाह्ण एवेह कार्यः सारस्वतोत्सवः॥
यहाँ यह समझना रोचक है कि सरस्वती का उत्सव तब हो जब स्नेह का, रस का, रुचि-राग का जागरण हो जाये। जो सृजनशील है, स्निग्ध है, रसमय है वही सरस्वती का साम्राज्य है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा के मुख से प्रकट हुई देवी सरस्वती अपने स्वरूप से ही अपना सन्देश व्यक्त करती हैं।
आविर्ब्बभूव तत्पश्चान्मुखतः परमात्मनः। एका देवी शुक्लवर्णा वीणापुस्तकधारिणी॥
शुक्लवर्ण वाली, शुभ्र वस्त्र धारण किये हुये, हाथों में वीणा और पुस्तक सँभाले देवी सरस्वती भारत की चेतना का सांस्कृतिक स्वरूप हैं। वसन्त और सरस्वती पूजा के योग को समझते हुये गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी के निरूपण का विशेष सन्दर्भ उल्लेखनीय है। वे श्रीरामचरितमानस में एक सादृश्य विधान करते हुये वे कहते हैं कि “ श्रद्धा मानव की अन्तःप्रकृति का वसन्त है। मन तथा इन्द्रियों का निग्रह करते हुये नियमों का पालन, श्रद्धा रूपी वसन्त के पुष्प हैं। ज्ञान इसका फल है तथा भगवद्भक्ति इस फल का परम मधुर रस है।” बाह्य प्रकृति में जो वसन्त है, अन्तःप्रकृति में वही श्रद्धा है। जैसे वसन्त ऋतु में वृक्ष-वनस्पतियों का निहित रस फूल-फल बनकर व्यक्त हो जाता है, उसी प्रकार श्रद्धा का उदय होने पर चरित्रगत दिव्यता आचरण बनकर प्रकट हो जाती है।
वसन्त और सरस्वती का यह युगपत् आराधन केवल भौतिक नहीं है। यह सनातन धर्म में पीढ़ियों से प्रवाहित ज्ञान-परम्परा का दिव्य अनुष्ठान है। यजुर्वेद में “सरस्वती तु पञ्चधा” कहते हुये पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पञ्चकोशों में सरस्वती के प्रवाह को पहचाना गया है। महाभारत में सरस्वती नदी की सात धाराओं सुप्रभा, कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, ओघवती, सुरेणु और विमलोदका नाम से निर्मित सारस्वत तीर्थों का वर्णन किया गया है। सरयू के उत्तर तट पर त्रेता में श्रीराम के प्राकट्य हेतु चक्रवर्त्ती दशरथ जी का अश्वमेध यज्ञ मनोरमा नाम की सरस्वती के तट पर ही सम्पन्न हुआ था।
वाणी, जो मनुष्य को ज्ञान-सम्पदा का अधिकार देती है; वाणी, जो मनुष्य को प्राणिजगत् में उत्कृष्ट बनाती है वह जीवन-यज्ञ में घी बनकर पायी जाती है। वसन्त वही घी है, जिससे जीवन लहकता है और उसकी अभिव्यक्ति जागती है। वाग्देवी के कर कमलों में शोभित वीणा और पुस्तक केवल जड़ उपादान नहीं हैं, वे हमारी जातीय चेतना में निहित विद्या-बोध का शाश्वत संकेत हैं। वेद इसे राष्ट्रस्वामिनी कहते हैं, पुराण इसे भारत की प्राणधारा कहते हैं, सन्त इसे मंगलकारिणी कहते हैं और कविगण इसे माँ कहकर पुकारते हैं। महाप्राण निराला इसी भारती की जय-विजय मनाते हैं तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इसी भद्रभावोद्भाविनी भारती के चतुर्दिक्-गुञ्जार की मंगलकामना करते हैं –
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती
भगवान्! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।